रविवार, 2 जून 2013

मीडिया पर दबाव


छत्तीसगढ़ में इन दिनों मीडिया के लिए माहौल ठीक नहीं है। एक तरफ हैट्रिक में जुटी सरकार का दबाव है तो दूसरी तरफ दीगर राजनैतिक पार्टियों का दबाव भी कम नहीं है उपर से सोशल मीडिया की भ्रम फैलाने वाले तेवर भी कम हैरान करने वाले नहीं है।
्रहालांकि मीडिया के लिए या स्थिति कतई नई नहीं है। सरकारें कोई भी हो अपनी करतूत छुपाने वह मीडिया पर दबाव का सहारा लेती ही हे फिर छत्तीसगढ़ में बैठी भाजपा सरकार भी इससे अलग नहीं है। कोयले की कालिख पूते चेहरे से जब देख लुंगा जैसी आवाजे निकले तो मामला और भी मुश्किल हो जाता है।
रमन राज में वैसे भी माफिया गिरी बढ़ी है और अब तक करीब आधा दर्जन पत्रकार माफिया गिरी के शिकार हो चुके है। बिलासपुर के पाठक हत्याकांड हो या छूरा के राजपूत हत्याकांड हो सभी में पुलिस की भूमिका संदिग्ध रही है।
इस सबके बीच सुखद स्थिति यह है कि सरकार विरोधी खबरों को पूरी तरह से रोकने में सरकारी तंत्र विफल रहा है। और वह खबर रोकने नये-नये हथकंडे अपना रही है।
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प्रतिष्ठा दांव पर
छत्तीसगढ़ में जब से पत्रिका का पदार्पण हुआ है पुराने प्रतिष्ठित माने जाने वाले अखबारों की प्रतिष्ठा दांव पर लग गई है। पत्रिका के तेवर से सरकार में बेचैनी बढ़ी है तो पुराने लोगों को भी प्रतिस्पर्धा के चलते खबरें छापनी पड़ रही है।
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जनता से रिश्ता...
केन्द्रीय मंत्री नारायण सामी को कालिख पोतने के विवाद में आये पप्पू फरिश्ता ने अखबार खोल लिया है। इस अखबार में उन्होंने सनत चतुर्वेदी, अनिरूह दुबे जैसे पत्रकारों को रखा है। कहते है कभी इसी तरह का खेल कुख्यात बालकृष्ण अग्रवाल ने खेला था और तब भी राजनारायण मिश्र, एम.ए. जोसेफ, नारायण भोई अहफाज रशीद जैसे लोग झांसे में आ कर बाद में खूब पछताये थे।
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अमन का पथ
वैसे तो राजधानी में कई अखबार खुल और बंद हो रहे हैं जनदखल में अपना दखल दिखा चुके देवराज सिंह पवार इस बार अमन पथ लेकर आये हैं इस पथ की चर्चा अभी शुरू नहीं हो पाई है इसकी वजह यहां काम करने वाले पत्रकार दूसरी जगह ज्यादा समय दे रहे हैं।
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और अंत में...
कांग्रेसियों पर नक्सली हमला के बाद सरकार को सर्वदलीय बैठक बुलाने की सलाह जिस पत्रकार ने दी थी उसी पत्रकार ने कांग्रेस को बहिष्कार की भी सलाह दी।

बुधवार, 13 मार्च 2013

अपनी ढपली, अपना राग...


जैसे जैसे विधानसभा चुनाव नजदीक आने लगा है अखबार मालिकों ने अपना खेल शुरू कर दिया है। प्रसार बढ़ाने कुर्सी बांटने वाले भास्कर अब भी अपने को नंबर वन बता रहा है तो नवभारत, हरिभूमि और पत्रिका भी अपने को नम्बर वन बताते नहीं थकते ऐसे में पाठक किसे नम्बर वन माने? अब तो प्रसार बढ़ाने की होड़ में हर अखबार इनामी योजना से लेकर कुर्मी टेबल, हाटपॉट टिफीन बांट रहे है। इस दौड़ में नई दुनिया भी शामिल है। हालांकि नई दुनिया का मालिक से लेकर संपादक तक बदल चुका है। दूसरी तरफ पत्रकारों की स्थिति भी यही है। अब उनकी पहचान कलम की बजाय बैनर से होती है। और अधिकारी से लेकर नेता भी बड़े बैनर माने जाने वाले अखबार के पत्रकारों को ही ज्यादा पूछ परख करते हैं।
ऐसे में जब चुनाव नजदीक हो तो विज्ञापन और पेड न्यूज की मारा भारी के चलते बड़े बैनरों के इन पत्रकारों पर दबाव भी बहुत है। और अब तो पत्रकारों की किमत भी बढऩे लगी है। बैनर बदलने के एवज में वेतन भी बढ़ रहा है।  मुसिबत छोटे बैनर की बढ़ गई है क्योंकि छोटे बैनर के अच्छे पत्रकारों को बड़े बैनर वाले ज्यादा तनख्वाह देकर अपने यहां ले जाने लगे हैं।
इन सबके बीच छोटे बैनरों खासकर साप्ताहिक और मासिक पत्रिका निकाल रहे पत्रकारों की दिक्कतें भी इस चुनावी साल में बढऩे लगी है। क्योंकि बड़े बैनरों की अपनी सीमा हे और उन पर सरकार व जनसंपर्क विभाग का दबाव भी है जबकि इसके उलट छोटे बैनर वालों की पूछ तभी बढ़ती है जब वे दमदार खबर परोसते हैं।
हालांकि पत्रिका के आने के बाद बड़े अखबारों का तेवर भी बदला है लेकिन चुनाव तक यह तेवर बरकरार रहेगा इसे लेकर संशय जरूर कायम है। नंबर वन की दौड़ में शामिल पत्रिका को विधानसभा का पास नहीं दिये जाने को लेकर चर्चा भी खूब हो रही है औरइसे सरकार के बदले की कार्रवाई का भौंडा प्रदर्शन माना जा रहा है।  अब तक पत्रकारों को धमकाने का आरोप पुलिस और माफिया पर ही लगता रहा है लेकिन नंबर वन की दौड़ में शामिल पत्रिका को विधानसभा का पास नहीं दिये जाने को लेकर चर्चा भी खूब हो रही है और इसे सरकार के बदले की कार्रवाई माना जा रहा है।
अब तक पत्रकारों को धमकाने का आरोप पुलिस और माफिया पर ही लगता रहा है लेकिन इस बार एक मासिक पत्रिका से जुड़े अनिल श्रीवास्तव नायक पत्रकार ने जनसंपर्क के अधिकारी के खिलाफ सिटी कोतवाली में शिकायत की है। शिकायत किये एक माह हो गये लेकिन अभी तक जुर्म दर्ज भी नहीं हुआ है। यानी सरकारी दबाव जारी है।
और अंत में ...
मंत्रालय दूर होने से अफसरों को राहत तो मिली है लेकिन पत्रकारों की दिक्कत बड़ गई है। मंत्रालय के नाम पर समय व रूतबा झाडऩे वालों को अब अन्य सीटों पर मेहनत करनी पड़ रही है।

बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

बढ़ते हमले, ट्रटता तिलस्म...


एक जमाना था जब पत्रकारों के जलवे हुआ करते थे । उनकी खबर पर ने केवल कार्रवाई होती थी बल्कि उन्हें खबर के कबरेज की आजादी भी थी । लेकिन अब वैसा नहीं रह गया है । भ्रष्ट तंत्र ने बेईमानों को गेडें का रूप दे दिया है। लोक लाज का भय तो समाप्त हुआ ही है। कार्रवाई नहीं होने से उनके हौसले भी बुलंद है।
यही वजह है कि पत्रकारों के साथ न केवल दुव्र्यवहार की घटना बढ़ी है बल्कि उनकी सुरक्षा को लेकर भीषण सवाल भी खड़े हुए है। पत्रकारों को आये दिन धमकी की घटनाएं ही नहीं बढ़ी है बल्कि लचर सरकार के चलते उनकी हत्या भी होने लगी है । हाल ही में बिलासपुर द्वारा और कांकेर में पत्रकारों की हत्या हुई है जबकि मारपीट भी घटनाएं भी बढ़ी है ।
ताजा मामला राजधानी रायपुर के काईम ब्रांच का है । क्राईम ब्रांच के छापे की खबर पर कव्हरेज करने पहुंचे फोटोग्राफर नरेन्द्र बंगाले से मारपीट की गई जबकि साथ में मौजूद वरिष्ठ छायाकार विजय शर्मा भी दुव्र्यवहार के शिकार हुए । सादे वर्दी में मौजूद  क्राईम ब्रांच के सिपाही अभिषेक ने जिस तरह से बंगाले के साथ करतूत की वह कहीं से भी क्षम्य नहीं माना जा सकता  । ये अलग बात है कि कप्तान साहब ओजीपाल ने घटना की गंभीरता को देखते हुए उस सिपाही को निलंबित कर दिया लेकिन  सवाल यह है कि क्या अब कोई पुलिसवाला ऐसी हरकत नहीं करेगा ।
इससे पहले भी कई पत्रकार पुलिसिया करतूत के शिकार बन चुके है। और हर बार निलंबन के बाद मामला शांत हो जाता हे और फिर यह घटना दुहराई जाती है । निलंबन के साथ सजा का कड़ा प्रावधान क्यों नहीं होना चाहिए । सिर्फ पत्रकार ही नहीं आम आदमी के साथ भी पुलिसिया करतूत को संज्ञान में लेकर जब जक ऐसे लोगो के खिलाफ जुर्म दर्ज नहलीं किया जायेगा ऐसी घटनाएं होती रहेगी ।
सरकार को चाहिए कि वह ऐसी घटनाटनों पर जुर्म दर्ज करने अधिकारियों पर दबाव बनाये ।
और अंत में ...
बजर में पत्रकारों के लिए समान निधि, व्यक्तिगत दुर्घटना के लिए मुख्यमंत्री को धन्यवाद देने पहुंचे पत्रकारों में चेहरा दिखाने की होड़ मची रही । इस पर प्रेस क्लब में टिप्पणी होते रही कि किसे सम्मान निधि की अब जरूरत नहीं है ।

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

पत्रकारिता पर मंडराता खतरा...


वैसे तो पहले ही पत्रकारिता में खतरें कम नहीं थे लेकिन इन दिनों छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता करना आसान नहीं रह गया है । रमन सरकार के संरक्षण में जहां एक तरफ माफियाओं या अपराधियों के हौसले बुलंद है तो दूसरी तरफ नक्सली भी पत्रकारों पर दबाव बढ़ाने लगे हैं । बिलासपुर का पाठक हत्याकांड हो या छुरा का राजपूत हत्याकांड हो सरकार और पुलिस के कारनामों ने अपराधियों को खुला छोड़ दिया है । आये दिन सरकार के भ्रष्टाचार की खबरें छापने पर धमकियों की खबरें आने लगी है यहां तक की पुलिस के दुव्र्यवहार की खबरें भी बड़ी है । सरकार अपने खिलाफ छपने वाली अखबारों पर चौतरफा दबाव बजा रही है तो पत्रकारां पर हमले भी तेज हुए हैं ।
नेमीचंद की हत्या...
कांकेर के पत्रकार नेमीचंद जैन की हत्या क्या सरकारी संरक्षण प्राप्त टीन तस्करों ने की है या नक्सलियों ने उनकी हत्या की है यह जांच का विषय हो सकता है । लेकिन यह पत्रकारिता पर हमला है और इस हमले को बदश्ति नहीं किया जाना चाहिहए । नेमीचंद जैन की हत्या को लेकर भले ही नक्सली ख्ंाडन कर रहे है लेकिन क्या यह पूर सच है । उनका खंडन संदेह के परे है । हालांकि आमतौर पर नक्सली जो भी करते है हिम्मत से उसकी जवाबदारी लेते है लेकिन यदि यह उनका कृत्य सरकार को भी उस टीन तस्कर की गिरफ्तारी जल्द करना चाहिए जिनका नाम सामने आ रहा है ।
पत्रिका पर प्रहार...
सरकार के करतूतों पर लीखा प्रहार करने वाले पत्रिका के पत्रकारों का विधानसभा का पास इस बार भी नहीं बनाया गया । यह ठीक है कि विधानसभा का पास किसका बनना है किसका नहीं यह विधानसभा का विशेषाधिकार है लेकिन सरकार यह जान ले कि यह पत्रकारिता पर प्रहार से कम नहीं है और इसके परिणाम क्या हो सकते हैं रमन सरकार को सोचना है ।
जनदखल बंद ! ...
एक पुरानी कहावत है नियत में बरकत होती है । जनदखल अपने तेवर बदला तो सरकार से सेटिंग की खबरें चर्चा का विषय बन गई । और अब उसके बंद हो जाने की खबर से एक बात तो तय है कि पत्रकारिता में ढुकुर सुहाती ज्यादा दिन नहीं चलती । यहां काम कर रहे सनत चुतुर्वेदी, प्रदीप डडसेना नई नौकरी की तलाश में हैं । सनत चुतुर्वेदी जी सीनियर पत्रकार हैं और पत्रकारिता की गरिमा के लिलए उनकी पहचान है ।
और अंत में...
चुनाव आते ही रंगा-बिल्ला फिर सक्रिय हो गए है । नये भारत के इस चर्चित जोड़ी का कमाल था कि ये खबरें प्रकाशित हो गई कि मुख्यमंत्री रमन सिंह ने विधानसभा में प्रदर्शन के लिलए भाजपा विधायकों की पीठ ठोकी जबकि कहा जा रहा है कि पूरी बैठक में कांग्रेस के तेवर को लेकर चिंता के बादल छाये रहे ।

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013

जमीन लेने मची होड़...


इन दिनों राजधानी से निकलने वाले कई अखबार मालिकों में जमीन लेने की होड़ मची है । नई राजधानी में जमीन के लिए आवेदन देने का सिल-सिला भी शुरू हो गया है इनमें वे अखबार भी शामिल हैं जो पहले ही जमीन ले चुके हैं । हालांकि अभी तक सरकार की तरफ से कोई निर्णय नहीं हुआ है लेकिन आवेदन पहले से ही लगाये जा रहे हैं । जमीन लेने में व लीज की शर्तो का उल्लंघन करने में माहिर अखबारों की यहां कमी नहीं है । ओर ऐसे अखबार मालिक इस चुनावी साल का भरपुर फायदा उठाने अधिकारियों पर दबाव भी बना रहे है ।
ज्ञात हो कि रजबंधा तालाब पाटकर अखबार वालों को जमीन दी गई है । कहने को तो जमीन अखबार चलाने दी गई है लेकिन काम्प्लेक्स बनाये गये और दूकाने तक बेची जा रही है लेकिन इनके दबाव के आगे कार्रवाई तो दूनर टैक्स तक ठीक से वसूले नहीं जा रहे हैं ।
सुप्रीम कोर्ट के तालाब को लेकर दिये गये निर्देशों के स्पष्ट उल्लंघन के बाद न तो जिला प्रशासन ही कार्रवाई को तैयार है और न ही निगम द्वारा ही कार्रवाई की जा रही है ऐसे में नई राजधानी में इन्हें जमीन दिया जाना कहां तक उचित है यह सरकार ही जाने ।
 चौबे अब साधना में...
छत्तीसगढ़ इलेक्ट्रोनिक मीडिया एसोसियेशन के संस्थापक सदस्य नितिन चौबे अब साधना न्यूज़ (मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़) के वाइस प्रेसिडेंट हो गये हैं। आज रात दिल्ली से लौटने पर एसोसियेशन के कार्यालय में नितिन का आत्मीय अभिनन्दन किया गया। छत्तीसगढ़ इलेक्ट्रोनिक मीडिया एसोसियेशन से जुड़े सभी चैनल के ब्यूरो चीफ़, संवाददाता, रिपोर्टर और कैमरा पर्सन ने नितिन को दिल से बधाइयां देते हुए उनके उज्जवल भविष्य की कामना की है। इसके पहले नितिन नेशनल चैनल जी.एन.एन. न्यूज़ के ब्यूरो चीफ़ थे।

गुरुवार, 7 फ़रवरी 2013

क्रिकेट का घालमेल-पत्रकारों का निकला तेल।


प्रेस क्लब के द्वारा आयोजित क्रिकेट स्पर्धा ने नया इतिहास रचा है। मैज जीतने उतरी कई टीमों की करतूत न केवल शर्मनाक रही बल्कि पदाधिकारियों की जैसे-तैसे मैच कराने की कोशिश ने इस टुर्नामेंट को न केवल विवादास्पद बना दिया बल्कि ऐसे आयोजन पर ही सवाल उठा दिया।
दरअसल 23 अक्टुबर को अपना कार्यकाल समाप्त होने के बाद भी चुनाव नहीं कराने वाले पदाधिकारियों के कुर्सी प्रेम की वजह क्या है यह तो वही जाने लेकिन क्रिकेट के बहाने राजनीति ने प्रेस क्लब की मर्यादा को ठेस पहुंचाने में कई पत्रकार भी पीछे नहीं रहे।
कहने को तो स्पर्धा में बीस टीमों ने हिस्सा लिया लेकिन ऐसी कोई भी टीम नहीं थी जिनके पूरे खिलाड़ी प्रेस क्लब के सदस्य हों। यदि प्रेस में काम करने वालों को खेलने की छूट को आधार मान भी लिया जाए तब भी क्रिकेट के नाम पर जो तमाशा हुआ उसकी जिम्मेदारी से न तो पदाधिकारी ही बच सकते है और न ही पत्रकार ही अपने को निर्दोष बता सकते हैं।
प्रेस क्लब के पदाधिकारियों के इसी लिजलिजे रवैये के चलते कई टीमों ने मैच जितने लिए शर्मनाक खेल खेला और ऐसे लोगों को अपनी प्रेस के बैनर तले मैदान में उतारा जो न केवल प्रोफ़ेशनल खिलाड़ी थे बल्कि उनका प्रेस क्लब या अखबार के दफ़्तर से कोई लेना देना रहा। मैच जीतने के लिए किए इस कृत्य को लेकर सदस्यों में बेहद आक्रोश है लेकिन आश्चर्य का विषय तो यह है कि अपनी मनमानी पर उतारु पदाधिकारियों ने जानकारी के बाद ऐसे लोगों को न केवल खेलने दिया बल्कि ऐसी टीमों को संरक्षण भी दिया। जबकि कायदे से उन टीमों को जिन्होने प्रेस कर्मचारियों को छोड़ दूसरी जगह से खिलाड़ी मंगाए थे उन्हे ब्लेक लिस्टेड कर देना था। यहां तक कि जो टीम फ़ायनल जीती वह भी एक ऐसे खिलाड़ी के खेल से जीती जो प्रेस का कर्मचारी ही नहीं है।
सद्भावना के नाम पर भले ही इस शर्मनाक पहलु को नजर अंदाज कर दिया जाए लेकिन सामान्य सभा में यह मुद्दा जरुर उठेगा जिसका जवाब पदाधिकारियों को देना ही होगा।
आसिफ़ पहुंचे फिऱ प्रेस क्लब।
पंद्रह दिन पहले ही प्रेस क्लब से अलग होकर एसोसिएशन बनाने वालों के कैरन क्लब का उद्घाटन  करने वाले वरिष्ठ पत्रकार आसिफ़ इकबाल का क्रिकेट मैच के फ़ायनल में पहुंचना चर्चा का विषय रहा। पदाधिकारियों की करतूतों पर नाराज बताए जा रहे आसिफ़ इकबाल की प्रेस क्लब के कार्यक्रम में उपस्थिति से नए बने एसोसिएशन को झटका भी लगा है।

पिकनिक नहीं तो गायब


सालों के बाद इस बार 26 जनवरी को प्रेस क्लब के द्वारा आयोजित पिकनिक ले जाने का कार्यक्रम रद्द कर दिया गया। पिकनिक नहीं ले जाने की असली वजह किसी को समझ नहीं आ रही है। लेकिन इसके टलने से जनसम्पर्क विभाग सबसे ज्यादा खुश है तो गैर सदस्य दुखी है। वैसे भी पिकनिक में प्रेस क्लब सदस्य कम जाते थे, गैर सदस्यों की संख्या अधिक होती थी।
पिकनिक कार्यक्रम रद्द होने का प्रभाव आगे क्या होगा यह तो पदाधिकारी ही जाने लेकिन 26 जनवरी को प्रेस क्लब के झंडा वंदन कार्यक्रम में बामुश्किल दर्जन भर लोग पहुंचे। कई पदाधिकारी गायब थे और जो पदाधिकारी पहुंचे थे उनमें से कईयों को घर जाने की जल्दी थी।
प्रेस क्लब और क्रिकेट
प्रेस क्लब द्वारा आयोजित क्रिकेट मैच को लेकर इन दिनों चर्चा का गर्म है। अधिकांश टीमों में गैर सदस्यों का दबदबा है तो वहीं इलेक्ट्रानिक मीडिया वाले भी इसमें भाग ले रहे हैं। जबकि इलेक्ट्रानिक मीडिया वाले अपना संगठन अलग बना चुके हैं।
वैसे भी प्रेस क्लब ऐसी संस्था बन गई है जहां गैर सदस्यों के आगे सदस्यों की नहीं चलती।
जन सम्पर्क का खेल
कहने को तो जनसम्पर्क विभाग सरकार और जनता के बीचे सेतू  का कार्य करता है लेकिन हकीकत में उसका काम सिफऱ् विज्ञापन बांटना एवं दूसरे प्रदेश के अखबारों के संवाददाताओं से जी हजुरी करवाना रह गया है। जनसम्पर्क के अधिकारियों के इस रवैये से स्थानीय पत्रकारों में रोष है पर छवि तो दिल्ली में बनती है इसलिए इसकी परवाह वे नहीं करते।
यही नहीं सरकार की छवी सुधारने में लगी यह संस्था अपनी वेबसाईट भी ठीक नहीं कर पा रही है। मुख्यमंत्री रमन सिंह जिलों का निर्माण कर रोड़ शो करके 27 जिलों में वाहवाही लूट रहे हैं लेकिन जनसम्पर्क की वेबसाईट में अभी भी 18 जिले प्रदर्शित हैं।

बढते अखबार फिऱ भी लाचार

छत्तीसगढ में होने जा रहे इस बार विधानसभा चुनाव की तैयारी  में सिफऱ् राजनैतिक दल ही नहीं मीडिया भी सक्रिय हो गया है। कई अखबार फिऱ से छपने लगे हैं तो हर माह नए नाम से अखबारों का पंजीयन भी होने लगा है। सरकारी विज्ञापन और नेताओं से विज्ञापन के लिए जोड़-तोड़ शुरु हो गई है।
एक आंकड़े के मुताबिक छत्तीसगढ़ में प्रकाशित होने वाले अखबारों की संख्या 2200 से अधिक है। इनमें से कई अखबार तो राष्ट्रीय या धार्मिक त्यौहारों पर ही भरपूर विज्ञापन के साथ प्रकाशित होते हैं।
कभी सर्वश्रेष्ठ पत्रकारिता के लिए पहचाने जाने वाले छत्तीसगढ़ में अब पेड न्यूज या तोड़-मरोड़ कर खबरें प्रकाशित करने का दौर शुरु हो गया है। यह कहानी सिफऱ् छोटे बैनरों की नहीं है बल्कि बड़े नामचीन बैनरों पर भी कई तरह के आरोप लग रहे हैं। कोई अपने नाम के अनुरुप मित्रता निभा रहा है तो कोइ कोयला खदान के लिए जिद पकड़े हुए है। कहने को तो नए तेवर और नए कलेवर की वकालात हो रही है तो कईयों का काम केवल दलाली करना रह गया है।
सरकार में बैठे लोग भी ऐसे अखबारों को उनकी औकात के अनुरुप रोटी फ़ेंक रहे हैं जबकि कलम की ताकत को नजर अंदाज करते हुए ठकुरसुहाती में लगने वालों की संख्या कम नहीं है।
इलेक्ट्रानिक वालों ने जोर दिखाया
प्रेस क्लब से अलग होकर पृथक संगठन बनाने वालों ने अपनी ताकत दिखानी शुरु कर दी है। इलेक्ट्रानिक मीडिया एसोसिएशन के कार्यालय में कैरम लग गया है और इसका उद्घाटन प्रेस क्लब के पूर्व पदाधिकारी और मानद सदस्य आसिफ़ इकबाल ने किया। कभी प्रेस क्लब की गरिमा के लिए लडऩे वाले आसिफ़ इकबाल पृथक बने संगठन में जाना चर्चा का विषय है।
वैसे इलेक्ट्रानिक वालों का दावा है कि अभी और भी कई नामचीन पत्रकार प्रेस क्लब छोडऩे वाले हैं। हालांकि अभी पूरी तरह इलेक्ट्रानिक वाले ही एक नहीं हो पाए हैं। ऐसे में वापसी चर्चा भी कम नहीं है।
और अंत में...
पत्रिका में पहले दिन मौदहापारा पुलिस की पिटाई की खबर छूट जाने की भरपाई दूसरे दिन की गई, लेकिन जनसम्पर्क अधिकारियों ने इस पर खूब चुटकी ली और कहने लगे कि जोश के साथ होश नहीं रखा गया तो खबरें छुटेंगी ही। किसी दिन भद्द भी पिट सकती है।

आखिर इलेक्ट्रानिक वाले अलग हो ही गये ...


यह तो होना ही था । आखिर ग्लैमर से भरे इलेक्ट्रानिक मीडिया कब तक प्रिंट मीडिया के दबदबे पर चुप रहती । इलेक्ट्रानिक मीडिया इस बात पर लंबे समय से नाराज थे कि आजकल हर नेता - अधिकारी इलेक्ट्रानिक मीडिया के ग्लैमर के आगे नतमस्तक है तब भला प्रेस क्लब में पिं्रट मीडिया का दबदबा क्यों नहीं है ।
दरअसल प्रेस क्लब को प्रिंट मीडिा के वरिष्ठ पत्रकारों ने अपने खूब पसीना से सींचा है और सीनियरों की मेहहनत की वजह से ही रायपुर प्रेस क्लब का नाम सम्मान से लिया जाता है । ऐसे में प्रेस क्लब की गरिमा बनाये रखने की जिम्मेदारी भी कम नहीं है ।
ऐसा नहीं है कि प्रेस क्लब को तोडऩे की यह पहली कोशिश है पहले भी ऐसी कोशिश होते रही है लेकिन वरिष्ठों की प्रभावी भूमिका से तोडऩे का मसूंबा कभी पूरा नहीं हुआ ।
पुसदकर नेतागिरी की ओर
प्रेस क्लब के पूर्व अध्यक्ष अनिल पुसदकर ने पत्रकारिता छोड़ दिया है या नहीं यह तो तय नहीं है लेकिन इन दिनों बे फिरसे राजनीति करने लगे है और केजरीवाल की पार्टी आम आदमी पार्टी के रायपुर का मीडिय़ा संभाल रहे हैं । यानी लड़ाई चालू आहे ।
सिमटती दूनिया-छिटकती खबरें...
कांकेर जिले के नइहरपुर ब्लॉक के आदिवासी कन्या आश्रम में हुई बलात्कार ने समूचे छत्तीसगढ़ को झकझोर कर रख दिया । घटना के विरोध में चप्पा-चप्पा बंद रहा । पर इतनी बड़ी खबर का नेशनल मीडिया में स्थान हैरान कर देने वाला है ।
नेशनल मीडिया की इस तरह की भूमिका को लेकर कमोबेश सभी राज्यों में जनमानस में नाराजगी है । काहे का नेशनल ! दिल्ली में बैठने भर से कोई नेशनल मीडिया बन जाता है ? ऐसे कितने ही आक्रोश के स्वर सुनाई पड़ते हैं ।
दरअसल संचार क्रांति के इस दौर में जैसे-जैसे दुनिया मोबाईल और इंटरनेट में सिमटती जा रही है । वैसे-वैसे खबरों की जानकारी बढ़ते जा रही है । ऐसे में समाचार पत्र या खबरिया चैनल की भूमिका भी बदली है । और व्यापार बाद हावी हुआ है । और जब व्यापार की सोच के साथ खबरें परोसी जाती है तब उन खबरों को ही प्राथमिकता दी जाती है जहां से विज्ञापन अधिक मिलते है या जहां प्रसार अधिक होता है ।
नेशनल ही नहीं राज्यों की राजधानी में बैठे मीडिया का भी यही रवैया है । खबरों की अधिकता और जगह की कमी की वजह के अलावा व्यापारिक फायदे ने कई बार खबरों के साथ अन्याय तो किया ही है पाठकों की सोच को भी बदला है । जब पूरे मामले का दारोमदार वे राज्य सरकार के ऊपर छोड़ते है तो खुद क्षमा क्यों मांगते हैं और अगर वे यह साफ करने की कोशिश करते हे कि उन्हौंने माननीय आधार पर क्षमा मांगा है तो क्या मानवीय आधार का क्षेत्रफल उनके क्षमा मांगने तक विस्तारित है, या सिमित है ? बात यह भी है कि अगर वे मान लेते है कि इस आरपी एफ कार्यवाही दौरान निर्दोष मारे गए है तो क्या देश गृहमंत्री के पद पर सुशोशित चिदंबरम द्वारा एक भी निर्दोष के मौत बाद केवल क्षमा मांग लेना भी उचित प्रतीत होता है ? देखा जाए तो अपने तरह का यह पहला मामला है जब किसी निर्दोष सोचना है कि काश इस मुद्धे पर चिदंबरम खामोश ही रहते तो कितना अच्छा होता, पर चिदंबरम भी क्या करें ना बोले तो क्यूं और अब बोल दिए तो क्यों ?
दरअसल उक्त विषय में जाग्रत पार्टी के लामबंदी बाद चिदंबरम ने कहा है कि अगर इसमें निर्दोष लोग मारे गए है तो वह इसके लिए मानवीय आधार पर क्षमा मांगते है ! उन्हौंने यह भी कहा है कि कानून व्यवस्था राज्य का विषय है यह भी कहते है कि इस पर अन्तिम फैसला लेने का हक सरकार का है सवाल यह है कि राज्यों की बड़ी खबरों को लेकर आम पाठकों का नेशनल मीडिया के प्रति जो सोच है । कमाबेश वही सोच राज्यों की राजधानी की मीडिया के प्रति ब्लाक या जिला के पाठकों का है ।
यही वजह है कि नेशलन मीडिया पर राज्यों की राजधानी की मीडिया के प्रति लोगों का आक्रोश बढ़ा है । हालांकि यह भी सच है कि कई बार बड़ी खबरों की जानबुझकर उपेक्षा की जाती है ।
और अंत में ...
सूचना के अधिकार के तहत जूटाये गए साक्ष्य पर जब एक पत्रकार ने खबर बनाने की सोची तो अखबार के संपादक ने अपने स्लोगन सुनाते हुए पत्रकार को ही फटकार लगा दी । यानी स्लोगन में मित्र यूं ही नहीं है ।

ये कैसी सूचना क्रांति का दौर है...


एक तरफ जब सूचना क्रांति के इस दौर में दुनिया भर की खबरे आसानी से मिल जाने का दावा किया जा रहा है वहीं दूसरी तरफ प्रिंट मीडिया के एडिशन के चक्कर में पड़ोसी जिले की खबरों से अनजान होने का खतरा बढ़ चुका है। जितना बड़ा अखबार उतना ज्यादा एडिशन ने सूचना क्रांति के दावों की पोल खोल कर रख दी है।
छत्तीसगढ़ में स्थापित अखबारों को इससे कोई मतलब भी नहीं रह गया है नवभारत पत्रिका भास्कर हरि भूमि नई दुनिया जैसी अखबारों का राजधानी से प्रकाशन हो रहा है। कहने को ये छत्तीसगढ़ के सर्वाधिक प्रसार वाले अखबारों का तमगा लिये बैठे हैं लेकिन एडिशन के चक्कर में खबरे सिमट कर रह गई है। रायपुर वालों को पड़ोसी जिले की खबरे ठीक से नहीं मिलती तो पड़ोसी जिले को राजधानी की खबरें ठीक से नहीं मिल पाती।
सूचना क्रांति के दौर में इस गड़बड़झाले से लोग हैरान है और वे अपने को ठगा सा महसूस कर रहे हैं तो आश्चर्य नहीं है।
अब तो पत्रकार वार्ता लेने वाले लोग भी पत्रकारों से निवेदन करते हैं कि उनकी खबर ऐसी जगह लगाये जिसे पूरे छत्तीसगढ़ भर के लोग पढ़ सके। एडिशन के इस चक्कर की वजह से अच्छी बातें भी लोगों तक नहीं पहुंच पा रही है लेकिन इससे मीडिया जगत को कोई लेना देना नहीं है।
हर जिले या ब्लॉक के लिए अलग एडिशन की वजह सिर्फ और सिर्फ  विज्ञापन की भूख होकर रह गई है। और इस वजह से पाठकों को पता नहीं चल पाता कि पड़ोसी जिले में सरकार की क्या करतूत है या लोगों के साथ न्याय-अन्याय कैसा हो रहा है।
छत्तीसगढ़ के मीडिया जगत में एडिशन के इस चक्कर ने ग्रामीण रिपोटिंग को भी ध्वस्त कर दिया है इसकी वजह से गांवों के विकास में सहायक योजनाएं भी दम तोडऩे लगी है।
एडिशन को लेकर भले ही अखबार वाले खुश हो लेकिन इससे होने वाले नुकसान की भरपाई मुश्किल है।
और अंत में..................
इन दिनों राजनैतिक गलियारें में एक चर्चा जोरों पर है कि जो बादल गरजते हैं वे बरसते नहीं लेकिन जो गरजते हैं वे जल्दी सेट जरूर हो जाते है।

दबाव पर भारी पड़ते प्रतिस्पर्धा...


इन दिनों राजधानी के बड़े मीडिया समूह में प्रसार संख्या बढ़ाने की होड़ मची हुई है कोई प्रदेश में स्वयं को नम्बर वन बताने लगा है तो कोई राजधानी में अपने को नंबर वन बता रहा है । नबंर वन बनने की इस प्रतिस्पर्धा में उपहार तो बांटे ही जा रहे हैं विज्ञापन दरों पर भी समझौते हो रहे हैं । ऐसे कार्यक्रमों में मीडिया पार्टनर बने जा रहे हैं जिनके आयोजकों पर उंगली उठ रही है ।
यह प्रतिस्पर्धा खबरों पर भी दिखने लगी है । लेकिन कुछ खबरों पर विज्ञापन की मजबूरी भी झलकने लगी है । खबरों से संस्थान के नाम गायब हो जाते है या फिर खबरें छायावाद पर बन जाती है  ।
इस सार्धा से पत्रकार बिरादरी खुश है कम से कम उन्हें रूटीन की खबर पर दबाव नहीं फेलना पड़ रहा है । यह अलग बात है कि राज बनने के बाद ग्रामीण रिर्पोटिंग व खोजी पत्रकारिता को सर्वाधिक नुकसान पहुंचा है ।
कभी- सर्वाधिक ग्रामीण रिपोटिंग प्रकाशित करने वाला देशबंधु प्रसार में पीछे छूट गया है तो इसकी वजह कहीं न कहीं विज्ञापनदाताओं का दबाव ही है ।
सरकार केविज्ञापन का दबाव तो अब भी कम नहीं हुआ है अब तो पत्रकार बिरादरी भी सरकार के कई किस्से सुनाते नहीं थकते । पत्रिका को पास जारी नहीं करना भी सरकारी दबाव का एक हिस्सा है । वैसे भी कौडिय़ों के मोल सरकारी जमीन लेकर कार्मशियल उपयोग की गलती हो तो दबाव तो झेलने ही पड़ेंगे । लेकिन कई अखबार वाले तो केवल सरकारी विज्ञापन के लालच में ही दबाव झेल रहे है ।
मजे में ब्यूरों
छत्तीगढ़ से निकलने वाले पत्र पत्रिकाओं से ज्यादा मजे में दूसरे प्रदेश से निकलने वाले पत्र-पत्रिकाओं के पत्रकारों के मजे है । विज्ञापन भी इन्हें खूब मिल रहा है और घूमने-फिरने के लिए जनसंपर्क से वाहन भी उपलब्ध हो जाते हैं ।
अब यह अलग बात है कि पत्रकारों के सत्कार में जितने पैसे खर्च नहीं होते उससे अधिक का बिल बन जाता है ।
रिश्तेदारी पर प्रहार...
भले ही इसे प्रतिस्पर्धा का नाम दिया जाये पर सच तो यह है कि अपने को मालिक का रिश्तेदार बताकर धौंस जमाना एक पुलिस अधिकारी को भारी पडऩे लगा हैं अब इसी अखबार के रिपोर्टर नाराज हैं और ढूंढ-ढूंढ कर खबरें बनाई जा रही है । आखिर थाने में रोज की करतूत कम नहीं है । यानी रिपोर्टर की जय हो ।
और अंत में ...
छत्तीसगढ़ में स्थापित होने छल-प्रपंच करने वाले एक अखबार को अब विज्ञापन वाला अखबार कहा जाने लगा है । आखिर इतना बड़ा काम्प्लेक्स कोई यूं ही खड़ा नहीं करता ।

नियंत्रण नहीं पर लाभ चाहिए...


कोलगेट कांड को दबाने के लिए जी न्यूज और जिंदल समुह में सौदे की खबर से मीडिया शर्मसार हुआ है। और यह सवाल जोर पकडऩे लगा है कि यह मीडिया पर सरकार का नियंत्रण जरूरी हो गया है! इस घटना में न तो जिंदल समूह के भ्रष्टाचार कम आंके जा सकते है और न ही जी न्यूज की इस खेल को ही नजर अंदाज किया जा सकता है।
छत्तीसगढ़ राज्य बनने से पहले यहां की पत्रकारिता को जो सम्मान मिलता रहा है ह उसमें कमी आई है। राज्य बनने के बाद मीडिया मैनेजमेंट का नया खेल शुरू हुआ है जिसमें बड़े-बड़े मीडिया समूह भी शामिल हो गये है। वे या तो खबरों के एवज में सीधे रकम ले रहे हैं या फिर विज्ञापन को माध्यम बता रहे है। पेड-चूज का यह आलम है कि सभी नेता व कार्पोरेट घराने इस खेल में शामिल हैं।
छत्तीसगढ़ में बड़े अखबार समूहो ने सरकार से फायदे के सीधे रास्ते के अलावा अप्रत्यक्ष फायदे का खेल शुरू कर दिया अखबार के अलावा दूसरे धंधो में सरकार से फायदा लेने का तिकइम जनता के सामने है। अखबार चलाने के नाम पर कौडिय़ों के मोल सरकारी जमीने ली गई और उस पर कामर्शियल काम्प्लेक्स तक ताने गये। सरकारी जमीनों के इस बेचा इस्तेमाल पर कार्रवाई करने की हिम्मत न तो किसी अधिकारी में है और न ही राजनेताओं में। इन जमीनों के लीज रेट को लेकर भी खेल चला। अखबार को सरकार से सारी सुविधाएं चाहिए। जनसंपर्क से विज्ञापन पर दबाव, वाहनों के लिए दबाव यहां तक कि घूमने फिरने तक के लिए दबाव बनाये जाते हैं।
विदेश तक घूम आये...
छत्तीसगढ़ के मीडिया बिरादरी को खुश करने सरकार विदेश तक ले जा चुकी है बैकांक- पटाया जा चुके पत्रकारों के नाम पर खूब खर्च हुए। जनता की गाढ़ी कमाई पर अपव्यय को लेकर छापने वाले पत्रकार न संपादक को यह विदेश यात्रा कभी अपव्यय नहीं लगा। और न ही उन्हें सरकारी सुविधाएं लेने में कभी हिचक हुई।

और अंत में...
पत्रकार अब सरकारी खर्चे पर किताब लिखने लगे है। सरकार से पैसा एंठने में इस नये खेल में ईमानदारी का ढि़ंढोरा पिटने वाले कई शामिल है।

प्रेस क्लब का कमाल दारू ठेकेदार का धमाल...




छत्तीसगढ़ की राजधानी में स्थित प्रेस क्लब की अपनी प्रतिष्ठा है लेकिन कतिपय पदाधिकारियों की खाओ पियों नीति ने न केवल इसकी प्रतिष्ठा को चोट पहुंचाई है बल्कि आम लोगों में प्रेस क्लब की छवि खराब करने की भी कोशिश हुई है ।
रायपुर प्रेस क्लब की गरिमा को इस बार ठेस पहुंचाने का काम कोई और नहीं कार्यकाल पूरा होने के बाद भी पदों पर जमें पदाधिकारियों ने की हे । प्रेस क्लब रायपुर द्वारा प्रतिष्टित लोगों के लिए प्रेस से मिलिए रूबरू और आमने सामने जैसे गरिमा पूर्ण आयोजन किया जाता है । इसी कड़ी में 17 नवम्बर शनिवार को रूबरू कार्यक्रम का आयोजन किया गया । इस कार्यक्रम में अब तक प्रतिभाशाली व प्रतिष्ठित लोगों को ही प्रेस क्लब अपना मेहमान बनाते आया है ।
लेकिन 17 नवम्बर के कार्यक्रम में इस कार्यक्रम की गरिमा को नजर अंदाज करते हुए
 प्रेस क्लब के पदाधिकारियों ने शराब ठेकेदार बल्देव सिंग उर्फ पप्पू भाटिया को आमंत्रित कर लिया ।
इस आयोजन में पदाधिकारियों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया अध्यक्ष बृजेश चौबे, महासचिव विनय शर्मा और उपाध्यक्ष के.के. शर्मा जहां पप्पू भाटिया के आजू-बाजू बैठे वहीं एक अन्य पदाधिकारी कमलेश गोगिया द्वारा स्मृति चिंन्ह दिया गया । जबकि अतिथि का स्वागत सत्कार का काम सुशील अग्रवाल और राजकुमार ग्वालानी ने किया । प्रेस क्लब के इस आयोजन को लेकर सदस्यों में बेह्द आक्रोश है और सामान्य सभा में यह मुद्दा भी जोर शोर से उठेगा कि आखिर एक शराब ठेकेदार को रूबरू जैसे प्रतिष्ठा पूर्ण कार्यक्रम में  क्यों बुलाया गया ।
ज्ञात हो कि प्रेस क्लब के इन वर्तमान पदाधिकारियों का कार्यकाल 23 अक्टूबर को समाप्त हो चुका है ऐसे में प्रेस क्लब की प्रतिष्ठा को बनाने की बजाय उस पर पलिता लगाने के मामले से पदाधिकारियों को जवाब देना मुश्किल हो जायेगा । जबकि कार्यकाल समाप्त होने के बाद फोटोग्राफरों के पुरस्कार वितरण में मुख्य अतिथि के लेट-लतीफी का मामला भी अभी शांत नहीं हुआ है और पुरस्कार को लेकर भी फोटोग्राफरों में नाराजगी है।
ऐसा नहीं है कि प्रेस क्लब की गरिमा को ठेस पहुंचाने की कोशिश पहली बार हुई है इससे पहले भी प्रेस क्लब की डायरेक्टरी में एक अपराधिक छवि वाले लल्लू के विज्ञापन पर बवाल मच चुका है और तब भी वर्तमान अध्यक्ष पर ही आरोप लगा था ।
बहरहाल कार्यकाल पूरा होने के बाद इस तरह के आयोजन को लेकर पदाधिकारियों की करतूत चर्चा में हैं जबकि पिछली बार अनिलपुसदकर के द्वारा समय पर चुनाव नहीं कराने के कारण यही लोग हल्ला मचाते थे । अब तो यह कहा जा रहा है कि प्रेस क्लब में ऐसा क्या है जिसकी वजह से जो बैठता है  उतरता ही नहीं चाहता !
      

कल जिसे छोड़ दिया था आज उसका सम्मान ?


राज्योत्सव में आज एक और कमाल होने वाला है। राज्योत्सव के पहले ही दिन जिस महिला पत्रकार को जनसंपर्क विभाग ने तेज़ बारिश में माना के पास अकेल छोड़ दिया था , उसका सम्मान किया जाने वाला है। रायपुर के सांध्य दैनिक तरुण -छत्तीसगढ़ के अलावा आकाशवाणी रायपुर में बतौर संवाददाता कार्यरत शगुफ्ता शिरीन को स्वर्गीय चंदूलाल चंद्राकर पत्रकारिता पुरस्कार के लिए
चुना गया है। आप सभी को बताते चलूँ- की राज्योत्सव के प्रथम दिवस जब शगुफ्ता रिपोर्टिंग के लिए सरकारी बस से नयी राजधानी के लिए रवाना हुई थी, उस बस में डीज़ल ने हो पाने के कारण यह बस एक घंटे तक पेट्रोल पम्प में खड़ी रही थी। बाद में शगुफ्ता डेढ़ घंटे बाद कार्यक्रम स्थल पहुँची और जनसंपर्क विभाग की एक महिला अधिकारी के साथ बैठ गयी . अचानक पानी गिरने से जब मीडिया - गैलरी में अफरा तफरी मची तो शगुफ्ता ने अपना बैग महिला जनसंपर्क अधिकारी को पकड़ा दिया और बारिश से बचने की जुगत में भीड़ में खो गयी। जब बारिश कम हुई और भीड़ बाहर निकली तब तक महिला जनसंपर्क अधिकारी हर्षा पौराणिक अपनी गाड़ी और शगुफ्ता का पर्स वाला बैग लेकर राज्योत्सव स्थल से जा चुकी थी। आधे से ज्यादा पत्रकार भी वहां से खिसक चुके थे . शगुफ्ता पहले तो अकेली भटकती रही फिर एक जनसंपर्क विभाग के नए नवाड़े अधिकारी से निवेदन किया की वह उसे जनसंपर्क विभाग तक पहुंचा दे। बारिश फिर शुरू हो चुकी थी , उस अधिकारी ने अपनी मोटर सायकल से शगुफ्ता को माना तक लाया और घर से काल आ जाने पर आगे जाने से मना कर दिया। पर्स न होने के कारण शगुफ्ता ने उससे और एक ग्रामीण से पैसे मांगे और ऑटो का इन्तेज़ार करने लगी। इसी बीच जनसंपर्क विभाग की एक और गाड़ी वहां से गुजरी तो शगुफ्ता ने उसे हाथ देकर रोका। इस गाड़ी के ड्राइवर ने कहा की इस गाडी में महिलाओं को नहीं सिर्फ पुरूषों को बैठाने का आदेश है , इतना कहकर ड्राइवर ने गाडी आगे बढ़ा ली। बरसते पानी में आखिर अकेली शगुफ्ता ऑटो से वापस घर आयी और रात में ही महिला जनसंपर्क अधिकारी के घर जाकर उसे खूब खरी खोटी सुनायी। सबकी एक लिखित शिकायत भी की है उसने। अब ऐसी स्थिति में अचानक उसके सम्मान से मैं व्यक्तिगत रूप से हतप्रभ हूँ . ये तो अपमान के बाद सम्मान हुआ न। शगुफ्ता के संघर्ष को सलाम और सम्मान के लिए बधाई .
फेसबुक में भड़ास...
छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता में अभी भी ऐसे पत्रकार है जिनकी नौकरी मजबूरी हो  सकती है लेकिन खबरों को वे अपने अखबार में न सही फेसबुक में प्रकाशित कर ही लेते है । राजधानी के दर्जनों पत्रकार फेस बुक में रोज खबरें डालते मिल जायेंगे । वहीं जनसंपर्क का किस तरह से बड़े अखबार पर दबाव है इसका भड़ास भी फेसबुक पर उतरते दिख जायेगा ।
और अंत में ....
नवभारत के राज्योत्सव सप्लिमेंट को देखकर एक प्रतिद्धंदी अखबार के  बड़े कर्मचारी का कमेंट्स था हम भी परिशिष्ट के बहाने एक ही बार में अपनी क्षतिपूर्ति कर लेंगे ।

पत्रकारिता के पुरोधा नहीं रहे ...


छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के पितृ पुरूष माने जाने वाले पंडित राज नारायण मिश्रा का निधन की खबर से उन्हें जानने वालों को दुख से भर दिया ।
अपनी विशेष लेखन शैली और दबंग पत्रकारिता के लिए पहचाने जाने वाले मिश्रा जी को सभी दा के नाम से जानते थे । कभी घूमता हुआ आईना के लिए हर बुधवार को देशबंधु खरीदने के लिए मजबूर करने वाले दा ने निर्भिक पत्रकारिता को बुलंदी तक पहुंचाया । 
क्या नेता क्या अधिकारी सभी उनके कलम के कायल थे।   
   श्रमजीवी पत्रकारों को पत्रकारिता के गुढ़ रहस्य समझाने वाले दा ने ग्रामीण रिपोर्टिग में नया आयाम स्थापित किया था । उनके निधन से रिक्त हुए जगह की भरपाई हो पाना मुश्किल है । वे हमेशा याद रहेंगे । विनम्र श्रद्धांजलि ।

नैयर जी भी फेसबुक में
नौकरी से रिटार्यड मेंट के बाद बबन प्रसाद मिश्रा के बाद अब रमेश नैयर भी अपनी लेखनी से फेसबुक के पाठकों से रूबरू होंगे । अपनी कलम की धार से पत्रकारिता को नया आयाम देने वाले रमेश नैयर का स्वागत ।

दूसरा साल गिरह ?
अपनी दबंग पत्रकारिता के लिए जल्द ही छत्तीसगढ़ में चर्चा में आने वाले पत्रिका समूह ने अपना दूसरा सालगिरह प्राची देसाई को पेश कर मनाया । दूसरे साल गिरह कैसे हुआ यह मैनेजमेंट का फंडा है लेकिन लोग पूछ रहे है छत्तीसगढ़ में पत्रिका को शुरू हुए दो साल कैसे हो गया ?

सुकांत का इस्तीफा ...
प्रेस क्लब के कोषाध्यक्ष सुकांत राजपूत ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया । 23 अक्टूबर को कार्यकाल समाप्त होने के बाद भी चुनाव नहीं होने को लेकर उनका इस्तीफा आने की चर्चा है हालांकि चर्चा इस बात की भी है कि हरिभूमि से पत्रिका जाने के बाद उन्हें प्रेस क्लब की राजनीति से दूर रहने की चेतावनी मिली थी । सच क्या है यह तो वही जाने लेकिन चर्चा को कैसे कोई रोक सकता है ।
बड़े-बड़ो का दूम हिलाना
छोटों का जीभ लपलपाना
राज्योत्सव बनाम लुटोत्सव को लेकर सरकार ने प्रचार प्रसार के लिए लंबा बजट बनाया है । करोड़ों रूपये विज्ञापन में खर्च किये जायेगे । इसे लेकर अखबार मालिकों की लार भी टपकने लगी है । कहा जा रहा है कि बड़े अखबार वाले विज्ञापन के लिए जनसंपर्क के अधिकारियों के सामने दुम हिलाते नजर आ रहे है तो छोटे अखबार वाले जीभ लपलपा रहे है सबसे ज्यादा परेशान साप्ताहिक व मंथली वालों की है जिन्हें विज्ञापन तो मिलेगा लेकिन उनकी कीमत उनकी चाटुकारिता के आधार पर भी तय नहीं होती ।