सोमवार, 24 मार्च 2014

मीडिया को गरियाने का मतलब...


इन दिनों कार्पोरेट मीडिया घराना आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल और उसकी टीम के निशाने पर है। लोकपाल बिल को लेकर राजनीति में आने वाले अरविन्द केजरीवाल का यह हमला कितना कारगर और सही है यह विवाद का विषय है। विवाद का विषय तो कार्पोरेट मीडिया घराना के कारनामों भी है। कार्पोरेट मीडिया घराना की विश्वसनियता पर सवाल पहले भी उठते रहे हैं। खासकर चुनावों में पेड न्यूज को लेकर इन पर हमला पहले भी होता रहा है। सुखद स्थिति यह है कि छत्तीसगढ़ में यह स्थिति पूरी तरह हावी नहीं है। खबरों को लेकर आम लोगों की नाराजगी जरूर है। बड़े लोगों के खिलाफ खबरे ठीक से प्रकाशित नहीं करने का आरोप भी लगता रहा है लेकिन पत्रकारिता के मल्यों को लेकर सवाल कम ही है। छत्तीसगढ़ में अखबार की आड़ में जमीन लेने और सरकारी सुविधाओं के इस्तेमाल को लेकर सवाल तो उठते हैं लेकिन इससे परे जाकर पत्रकारिता के मूल्यों की चिंता करने वालों की भी कमी नहीं है। इलेक्ट्रानिक मीडिया पर आज भी प्रिंट मीडिया हावी है और इलेक्ट्रानिक मीडिया भी उस स्थिति में नहीं पहुंच सका है कि कोसा जा सके। नवभारत की विश्वसनियता आज भी कायम है तो भास्कर के मार्केटिंग का कोई जवाब नहीं है पत्रिका का तेवर बरकरार है तो दूसरे अखबार भी खबरों को लेकर चर्चा में बने रहने को जुगत में लगे हैं। यह अलग बात है कि आज भी भंडाफोड़ खबरों के लिए छोटे अखबार ही माहिर है। संपादकीय टीम पर भले ही विज्ञापन या मार्केटिंग वाले हावी हो लेकिन पत्रकारिता के मूल्यों पर समझौते की स्थिति कम ही है। यह अलग बात है कि अखबारों के द्वारा सरकारी जमीन लेने और अधिमान्यता लेने  में अखबार मालिकों में होड़ मची है लेकिन यहां के ज्यादातार पत्रकारों को अब भी सरकारी सुविधा लेने में परहेज है। अरविन्द केजरीवाल के मीडिया पर लगाये आरोप को लेकर छत्तीसगढ़ में भी हलचल कम नहीं है। और इस पर दोनों तरह की राय स्पष्ट दिखने लगी है। एक वर्ग इसे अखबार को धंधा बनाने वालों पर हमला के रूप में देखता है तो दूसरा वर्ग इससे पत्रकारिता के और मजबूत होने की उम्मीद के रूप में देखता है। ऐसा नहीं है कि मीडिया पर आरोप पहली बार लगा है पहले भी इस तरह के सवाल उठते रहे हैं।
प्रेस क्लब में होली
प्रेस क्लब में होली का कार्यक्रम इस बार अलग ही ढंग का रहा। होलिका दहन के दिन आयोजित होने वाले कार्यक्रम स्थगित कर दिया गया लेकिन दूसरे दिन यानी रंग खेलने सभी पहुंचे। कुछ लोग दस साल बोतल नहीं मिल पाने का टोना रो रहे थे लेकिन यह कसर भी दूर हो गई ज्यादातर वही लोग आये जो रोज आते हैं।
नानसेंस टाईम्स की खाना पूर्ति
हर साल अपना जलवा दिखाने वाला नानलेंस टाईम्स इस बार खाना पूर्ति करता नजर आया। तपेश जैन, मधुसूदन शर्मा की यह शुरूआत इस बार फीका रहा। खबरों से ज्यादा विज्ञापन हावी रहा तो कई लोग जान बुझकर छोड़ दिये गये।
और अंत में...
प्रेस क्लब के चुनाव में इस बार एक अखबार मालिक की रूचि को लेकर चर्चा गर्म है इस बार प्रेस क्लब में वे अपने रिपोर्टरो को प्रमुख पदों पर बिठाने लालायित है और इसकी रणनीति तैयार की जाती है। पहली बैठक हो चुकी है।

शुक्रवार, 14 मार्च 2014

पद की बढ़ती लालसा...


ऐसा नहीं है कि  राजनीति में ही पद के लिए सब कुछ होता है। राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता में भी पद के लिए कुछ भी करेगा वालों की कमी नहीं है।
छत्तीसगढ़ में पत्रकार के संगठनों की कमी नहीं है और कई लोग तो इसे दुकानदारी तक बना चुके है लेकिन रायपुर प्रेस क्लब अब भी सबसे प्रतिष्ठित है। लेकिन हाल के सालों में इस पर भी पद लोभ का जो रंग चढ़ा है वह आश्चर्यकर देने वाला है। कभी हाथ उठाकर पदाधिकारी बनाने वाला यह क्लब चुनाव के झंझटो में पड़ गया है तो इसकी वजह पद की आड़ में अपना उल्लू सीधा करना नहीं तो और क्या है।
पिछले डेढ़ दो दशकों से तो ज्यादातर यह हुआ है कि जिसने भी पद पाई वह चुनाव को टालने की कोशिश में रह गया। और नियत समय में चुनाव नहीं कराने की वजह से हंगामा की स्थिति बनी। इसकी एक प्रमुख वजह वरिष्ठ पत्रकारों की प्रेस क्लब से दूरी बना लेना भी है। तो कुछ लोगों की गुटबाजी भी है।
इस बार भी नियत समय में चुनाव नहीं होने पर जब सदस्यों ने दबाव बनाया तो चुनाव की तिथि घोषित कर दी गई।
प्रेस क्लब का चुनाव 30 मार्च को है और अगला चुनाव सही समय पर हो इसे लेकर भी चिंता है। सबसे बड़ी चिंता उन्हें है जो हर हाल में पद चाहते हैं इसके लिए घेरेबंदी भी शुरू हो गई है।
हालांकि कई लोगों ने अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं लेकिन कहा जा रहा है कि पहले पदों पर रहे लोग इस बार फिर से सक्रिय हो गये हैं। इनकी सक्रियता की वजह पुन: पद पर आना है।
हालांकि पिछला अनुभव स्पष्ट हैं कि जिसने भी दोबारा पद पाया है उसने नियम समय में चुनाव नहीं कराया है इसके बाद भी अच्छे पत्रकारों की प्रेस क्लब से दूरी की वजह से वह सब होने लगा है जो नहीं होना चाहिए।
राजधानी बनने के बाद बढ़ी प्रतिस्पर्धा से कई पत्रकारों को किसी तरह नौकरी बचा लेने की चिंता है तो कोई विवाद से दूर रहना चाहता है यही वजह है कि ऐसे लोग सक्रिय हो जाते हैं। जो पत्रकारिता की बजाय पद से अपनी छवि बनाना चाहते है।
प्रेस क्लब में मोटे तौर पर 40-50 पत्रकार ही नियमित रूप से आते हैं इनमें से ज्यादातर प्रेस कांफ्रेंस के दिनों में ही दिखते है बाकी फोटोग्राफरों का समूह होता है जिन्हें अपने काम से मतलब होता है। एक समूह सिर्फ समय काटने पहुंचता है तो कुछ यहा कदा खबरों के फेर में आते हैं। ऐसे में करीब चार सौ सदस्यों वाले एस प्रेस क्लब की चिंता को लेकर कुछ लोग ही दुबले हो रहे है। तो इसकी परवाह भला कौन करे।
वरिष्ठ व सम्मानित पत्रकारों की आवाजाही नहीं के बराबर है वे आते भी है तो तभी जब कोई आयोजन हो। ऐसे में स्वेच्छाचारिता तो बढ़ी ही है पठन-पाठन में भी रूझान कम हुआ है। आजकल तो खबरों पर कम दूसरी बातों पर ही चर्चा अधिक होती है।
और अंत में...
प्रेस क्लब की सदस्यता को लेकर विवाद गहराता रहा है। काफी अरसे से नये सदस्य नहीं बनाये जा रहे हैं और इस बार भी चुनाव पुराने सदस्यों के हिसाब से ही होना है ऐसे में नये सदस्यों का क्या होगा। अब तक तो वे बेरोक टोक प्रेस क्लब आ ही रहे हैं।

सोमवार, 3 मार्च 2014

ये तो होना ही था...

प्रेस क्लब में अंतत: चुनाव की तिथि घोषित हो ही गई। 30 मार्च को होने वाले चुनाव के लिए सदस्य 8 माह से लगे हुए थे लेकिन पदाधिकारियों को बहाने बाजी के चलते चुनाव टलता ही जा रहा था इधर पदाधिकारियों से नाराज सदस्यों ने दबाव बनाया तो एक-एक कर पदाधिकारी इस्तीफा देने लगे और जब सदस्यों ने 2 मार्च को आामसभा बुलाने का आग्रह नोटिस बोर्ड में चिपका दिया तो फिर पदाधिकारियों को मजबूरन बैठक बुलानी पड़ी। बैठक में हंगामे के पूरे असार थे लेकिन जब बैठक शुरु हुई तो कॉकस ने मोर्चा संभाल लिया। पिछली बार भी यही हुआ था अनिल पुसदकर के पांच साल के कार्यकाल को  माफी दे दी गई और इस बार भी वहीं हुआ और तय हुआ कि एक समिति बना दी जाए जो 30 मार्च को चुनाव करा देगी। सदस्यों का गुस्सा हटा या नहीं यह तो नहीं पता लेकिन सारा कुछ पूर्ण निर्धारित तरीके से सम्पन्न हो गया। अब देखना है कि 30 की सामान्य सभा में क्या होता है।
बड़े से टकराओंगे
चूर-चूर हो जाओगे।

पूरे देश को अपना बंधु मानने वाले अखबर के पत्रकार को सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि बटाविया जैसे दिग्गज धंधेबाज से टकराना इस कदर भारी पड़ेगा कि उसे नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है। आखिर बटाविया छोटा मोटा खिलाड़ी तो है नहीं उसकी गिनती नौ रत्नों में होती है।
अब यह पत्रकार जगह-जगह अपनी पीड़ा बताते घुम रहा है। प्रेस क्लब ने भी इसे पत्रकार के घर जबरिया पुलिस घुसने की निंदा जाहिर की थी। पदाधिकारियों को भी खामोश रहने का संकेत दिया गया। ऐसा पहले भी हो चुका है आजकल विज्ञापन के दबाव में अखबार मालिक पत्रकारिता के मूल्यों को ताक पर रखते हैं। इससे पहले जनसंपर्क के खिलाफ खबर छापने पर एक पत्रकार की नौकरी जा चुकी है।
जितना बड़ा बैनर
उतना बड़ा पैकेज

लोकसभा चुनाव की बिसात बिछ चुकी है। राजनैतिक दल अपने हर गतिविधियों का प्रमोशन चाहते है और इसके लिए नामचीन अखबारों के पत्रकारों को खबर के साथ बहुत कुछ देने लगे हैं। खबर है कि पिछले दिनों ऐसे ही लेन देन को लेकर संझट हो गया उसे ज्यादा मुझे कम को लेकर मुंह  फुलने फुलाने का कवायद चल रही है। ऐसा ही नजारा विधानसभा चुनाव में भी देखने को मिला था जब एक बड़े बैनर को पता चला था कि उसे कम पैकेज दिया गया। खबरें उल्टी लगने लगी और फिर बाद में मामला सेट किया है।
छोटे बैनर वाले तब भी हताश व निराश थे लेकिन इस बार कुछ छोटे बैनर वाले बैठक कर चुके हैं कि किस तरह से दबाव बनाया जाए। शहर के मध्य स्थित एक होटल में रात के डिनर के साथ हुई बैठक तो जोरदार रही लेकिन दबाव कितना जोरदार होगा कहना कठिन है।
और अंत में...
30 मार्च को होने वाले प्रेस क्लब के चुनाव को लेकर इस बार जबरदस्त मोर्चेबंदी होने लगी है। कुछ पुराने पदाधिकारी भी चुनाव लडऩा चाहते है लेकिन पिछले दो कार्यकाल को लेकर जो बदनामी हुई है उसकी वजह से हार का डर साफ दिखने लगा है। कई तो अभी से कहने लगे है कि मुझे दुबारा नहीं लडऩा तो कुछ कह रहे हंैं इस बार नहीं लडऩा।