प्रेस क्लब में अंतत: चुनाव की तिथि घोषित हो ही गई। 30 मार्च को होने वाले चुनाव के लिए सदस्य 8 माह से लगे हुए थे लेकिन पदाधिकारियों को बहाने बाजी के चलते चुनाव टलता ही जा रहा था इधर पदाधिकारियों से नाराज सदस्यों ने दबाव बनाया तो एक-एक कर पदाधिकारी इस्तीफा देने लगे और जब सदस्यों ने 2 मार्च को आामसभा बुलाने का आग्रह नोटिस बोर्ड में चिपका दिया तो फिर पदाधिकारियों को मजबूरन बैठक बुलानी पड़ी। बैठक में हंगामे के पूरे असार थे लेकिन जब बैठक शुरु हुई तो कॉकस ने मोर्चा संभाल लिया। पिछली बार भी यही हुआ था अनिल पुसदकर के पांच साल के कार्यकाल को माफी दे दी गई और इस बार भी वहीं हुआ और तय हुआ कि एक समिति बना दी जाए जो 30 मार्च को चुनाव करा देगी। सदस्यों का गुस्सा हटा या नहीं यह तो नहीं पता लेकिन सारा कुछ पूर्ण निर्धारित तरीके से सम्पन्न हो गया। अब देखना है कि 30 की सामान्य सभा में क्या होता है।
बड़े से टकराओंगे
चूर-चूर हो जाओगे।
पूरे देश को अपना बंधु मानने वाले अखबर के पत्रकार को सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि बटाविया जैसे दिग्गज धंधेबाज से टकराना इस कदर भारी पड़ेगा कि उसे नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है। आखिर बटाविया छोटा मोटा खिलाड़ी तो है नहीं उसकी गिनती नौ रत्नों में होती है।
अब यह पत्रकार जगह-जगह अपनी पीड़ा बताते घुम रहा है। प्रेस क्लब ने भी इसे पत्रकार के घर जबरिया पुलिस घुसने की निंदा जाहिर की थी। पदाधिकारियों को भी खामोश रहने का संकेत दिया गया। ऐसा पहले भी हो चुका है आजकल विज्ञापन के दबाव में अखबार मालिक पत्रकारिता के मूल्यों को ताक पर रखते हैं। इससे पहले जनसंपर्क के खिलाफ खबर छापने पर एक पत्रकार की नौकरी जा चुकी है।
जितना बड़ा बैनर
उतना बड़ा पैकेज
लोकसभा चुनाव की बिसात बिछ चुकी है। राजनैतिक दल अपने हर गतिविधियों का प्रमोशन चाहते है और इसके लिए नामचीन अखबारों के पत्रकारों को खबर के साथ बहुत कुछ देने लगे हैं। खबर है कि पिछले दिनों ऐसे ही लेन देन को लेकर संझट हो गया उसे ज्यादा मुझे कम को लेकर मुंह फुलने फुलाने का कवायद चल रही है। ऐसा ही नजारा विधानसभा चुनाव में भी देखने को मिला था जब एक बड़े बैनर को पता चला था कि उसे कम पैकेज दिया गया। खबरें उल्टी लगने लगी और फिर बाद में मामला सेट किया है।
छोटे बैनर वाले तब भी हताश व निराश थे लेकिन इस बार कुछ छोटे बैनर वाले बैठक कर चुके हैं कि किस तरह से दबाव बनाया जाए। शहर के मध्य स्थित एक होटल में रात के डिनर के साथ हुई बैठक तो जोरदार रही लेकिन दबाव कितना जोरदार होगा कहना कठिन है।
और अंत में...
30 मार्च को होने वाले प्रेस क्लब के चुनाव को लेकर इस बार जबरदस्त मोर्चेबंदी होने लगी है। कुछ पुराने पदाधिकारी भी चुनाव लडऩा चाहते है लेकिन पिछले दो कार्यकाल को लेकर जो बदनामी हुई है उसकी वजह से हार का डर साफ दिखने लगा है। कई तो अभी से कहने लगे है कि मुझे दुबारा नहीं लडऩा तो कुछ कह रहे हंैं इस बार नहीं लडऩा।
बड़े से टकराओंगे
चूर-चूर हो जाओगे।
पूरे देश को अपना बंधु मानने वाले अखबर के पत्रकार को सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि बटाविया जैसे दिग्गज धंधेबाज से टकराना इस कदर भारी पड़ेगा कि उसे नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है। आखिर बटाविया छोटा मोटा खिलाड़ी तो है नहीं उसकी गिनती नौ रत्नों में होती है।
अब यह पत्रकार जगह-जगह अपनी पीड़ा बताते घुम रहा है। प्रेस क्लब ने भी इसे पत्रकार के घर जबरिया पुलिस घुसने की निंदा जाहिर की थी। पदाधिकारियों को भी खामोश रहने का संकेत दिया गया। ऐसा पहले भी हो चुका है आजकल विज्ञापन के दबाव में अखबार मालिक पत्रकारिता के मूल्यों को ताक पर रखते हैं। इससे पहले जनसंपर्क के खिलाफ खबर छापने पर एक पत्रकार की नौकरी जा चुकी है।
जितना बड़ा बैनर
उतना बड़ा पैकेज
लोकसभा चुनाव की बिसात बिछ चुकी है। राजनैतिक दल अपने हर गतिविधियों का प्रमोशन चाहते है और इसके लिए नामचीन अखबारों के पत्रकारों को खबर के साथ बहुत कुछ देने लगे हैं। खबर है कि पिछले दिनों ऐसे ही लेन देन को लेकर संझट हो गया उसे ज्यादा मुझे कम को लेकर मुंह फुलने फुलाने का कवायद चल रही है। ऐसा ही नजारा विधानसभा चुनाव में भी देखने को मिला था जब एक बड़े बैनर को पता चला था कि उसे कम पैकेज दिया गया। खबरें उल्टी लगने लगी और फिर बाद में मामला सेट किया है।
छोटे बैनर वाले तब भी हताश व निराश थे लेकिन इस बार कुछ छोटे बैनर वाले बैठक कर चुके हैं कि किस तरह से दबाव बनाया जाए। शहर के मध्य स्थित एक होटल में रात के डिनर के साथ हुई बैठक तो जोरदार रही लेकिन दबाव कितना जोरदार होगा कहना कठिन है।
और अंत में...
30 मार्च को होने वाले प्रेस क्लब के चुनाव को लेकर इस बार जबरदस्त मोर्चेबंदी होने लगी है। कुछ पुराने पदाधिकारी भी चुनाव लडऩा चाहते है लेकिन पिछले दो कार्यकाल को लेकर जो बदनामी हुई है उसकी वजह से हार का डर साफ दिखने लगा है। कई तो अभी से कहने लगे है कि मुझे दुबारा नहीं लडऩा तो कुछ कह रहे हंैं इस बार नहीं लडऩा।
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