बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

पत्रकारों का पेंशन और प्रेस क्लब


पत्रकारों की मांग पर सरकार ने पेंशन देने की घोषणा की तो सभी पत्रकार खुश थे उन्हें लगने लगा था कि अब सब कुछ ठीक हो जायेगा लेकिन योजना की शर्तों से उनकी खुशी काफूर होने लगी है। योजना कहां से और कैसे बनी इनके नियम शर्ते कहां से आये इस पर सवाल उठने लगे है। जितनी मुंह उतनी बातें होने लगी है। पत्रकारों में इस बात की चर्चा खूब है कि सरकार ने पेंशन योजना की शर्तों में जनसंपर्क के कुछ अधिकारी और अखबार मालिकों की सलाह मान ली जिसकी वजह से कुछ ऐसी शर्ते जोड़ी गई ताकि कम से कम पत्रकारों को इस योजना का लाभ मिले। मजिठिया आयोग की सिफारिश लागू करने में आनाकानी करने वाले अखबार मालिकों की बात छोड़ भी दें तो ऐसे अखबार मालिकों की कमी नहीं है जो अपने अखबार में काम करने वाले पत्रकार को अपना कर्मचारी नहीं मानते ऐसे में पेंशन योजना की नियुक्ति पत्र की शर्ते कैसे पूरी हो पायेगी।
हालांकि पत्रकारों ने भी रास्ता अख्तियार कर लिया है और संपादक से लिखवाने लगे है कि पूर्णकालिन कर्मचारी न ही कम से कम यह तो लिख दें कि कुछ महीने या साल से काम कर रहे हैं। इसके बाद भी आवेदनों में कमी बेहद कमी है।
प्रेस क्लब का विवाद...
जब से छत्तीसगढ़ राज्य बना है प्रेस क्लब के पदों पर बैठने की होड़ मची हुई है। रायपुर प्रेस क्लब का अपना रूतबा है और इसी रूतबे को भुनाने में कुछ पत्रकार लगे हैं। हालांकि यह कोई गलत भी नहीं है लेकिन गलत तब होता है जब पदाधिकारियों की लालच बढ़ जाती है। पद का मोह अच्छे अच्छों का ईमान डिगा देता है। इससे पहले अनिल पुसदकर और गोकुल सोनी को तो पद का इतना मोह था कि वे पांच साल जंमे रहे। सदस्यों को मुहिम चलानी पड़ी। समिति गठन करना पड़ा तब कहीं बड़ी मुश्किल से चुनाव हुए। चुनाव में बृजेश चौबे अध्यक्ष बने तो उनका भी पद का मोह जाग गया। अन्य पदाधिकारी भी चुनाव ही नहीं कराना चाहते। महासचिव विनय शर्मा हो या उपाध्यक्ष के के शर्मा, सभी अपने को पदों पर चिपकाये हुए हैं। कार्यकाल समाप्त हुए साल बित गये पर कुर्सी से चिपकने का मोह नहीं छुट रहा है।
सुशांत राजपूत कोषाध्यक्ष पद से इस्तीफा देने वाले पहले पदाधिकारी थे फिर एक-एक कर अध्यक्ष को छोड़ सब इस्तीफा देने का दावा कर रहे हैं लेकिन जैसे ही कोई कार्यक्रम होता है सभी इकट्ठे नजर आते हैं।
इस कार्यकाल में कर्मचारियों से विवाद के लिए पदाधिकारियों की पहचान बन गई है। प्रेस क्लब के कर्मचारियों से झगड़ा करते पदाधिकारियों की करतूतों पर सभी हतप्रभ हैं।
सोमा पहुंची हरिभूमि
बेहतर वेतन और बड़े बैनर का मोह भला किसे नहीं है। छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता दिखाने वाली सोमा शर्मा अब हरिभूमि पहुंच गई है। जबकि लोकसभा चुनाव के पहले और भी आवाशाही की चर्चा है।
और अंत में...

वरिष्ठ पत्रकार मधुकर खेर की जयंति पर आयोजित श्रद्धांजलि कार्यक्रम में अध्यक्ष को छोड़ प्रेस क्लब के पदाधिकारी गायब थे तो अनिल पुसदकर भी नजर आये। पत्रकारों की टिप्पणी थी कि वक्त पर चुनाव हो जाये बस यही खेर साहब के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

जो दिखता है वह बिकता है...



छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता की अपनी पहचान है, ग्रामीण रिपोटिंग से लेकर छोटी-छोटी खबरों पर यहां के पत्रकारों की पैनी नजर के सभी कायल हैं। लेकिन व्यवसायिकता का रंग भी चढऩे लगा है। बढ़ती महंगाई के बाद भी न तो नये-नये पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन होना ही रूक रहा है और न ही खबरों के तेवर में ही कोई कमी आई है। कमी आई है तो विश्वासनियता पर और इसकी वजह प्रिंट से ज्यादा इलेक्ट्रानिक मीडिया को दोषी माना जा रहा है। जो दिखता है वहीं बिकता है के फामूर्ले पर चल रहे इलेक्ट्रानिक मीडिया के इस युग में भी प्रिंट का जलवा बरकरार है तो इसकी वजह प्रकाशित होने वाली खबरों की विश्वसनियता से ज्यादा पत्रकारों की मेहनत है। वरना कुछ अखबार तो मार्केटिंग के चक्कर में विज्ञापन वाले अखबार भी कहलातें है और उन्हें इस पर कोई रंज भी नहीं है।
पत्रकारों की साहसिक यात्रा...
कांकेर के पत्रकार कमल शुक्ला अपने तेवर के लिए पहचाने जाते हैं। पिछले दिनों नक्सलियों द्वारा पत्रकार नेमीचंद जैन और रेड्डी की हत्या कर दी गई इससे पत्रकार बिरादरी उछेलित है और नक्सलियों के इस घटना के विरोध में पत्रकारों ने पदयात्रा की। धुर नक्सली इलाके में इस पद यात्रा के अपने मायने है और इसका दूरगामी परिणाम भी निकलने की उम्मीद है। इस पद यात्रा में रायपुर से गिरिश पंकज भी शामिल हुए जबकि बस्तर ही नहीं छत्तीसगढ़ भर के तमाम पत्रकारों ने इसे समर्थन देते हुए कई ने तो पदयात्रा भी की।
इधर उधर जाना जारी है...
राजधानी के कई पत्रकारों के साथ यह स्थिति हमेशा बनी रहती है कि आज वे कहां है कल कहां होंगे। इसी कड़ी में जहां से भी अच्छा ऑफर आये वो इधर-उधर जाने से परहेज नहीं करते। पिछले दिनों रामकुमार परमार ने अमृतसंदेश को थाम लिया तो विकास शर्मा भी विजन को अलविदा कर दिया। वैसे चर्चा यह भी है कि अभी कई और पत्रकार इधर-उधर जाने की जुगत में लगे हैं।
जबकि कुछ इलेक्ट्रानिक मीडिया से जुड़े पत्रकार भी प्रिंट मीडिया में जमीन तलाश रहे हैं।
और अंत में...
प्रेस क्लब के चुनाव को लेकर बढ़ते असंतोष से पदाधिकारियों के इस्तीफे की कथित नौटंकी जारी है और कहा जा रहा है कि लोकसभा चुनाव तक पदों पर बैठे रहने की मंशा भी वे यदा कदा जाहिर करते है। पदों पर बैठे रहने वालें कार्रवाई की डर से इस्तीफे की बात कर रहे हैं पर कार्यक्रम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए बेशर्मी से कहते है कि प्रेस क्लब की इज्जत का सवाल है। पर इस बार सदस्य निलंबन का प्रस्ताव तो रख ही सकते हैं।

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

भ्रष्टाचार का स्वागत सत्कार...


कहने को तो जनसंपर्क विभाग का काम सरकार और जनता के बीच सेतु का है लेकिन छत्तीसगढ़ में जनसंपर्क विभाग का काम न केवल सरकार की चापलूसी करना रह गया है बल्कि यहां बैठे अपसरों का काम मीडिया को धमकाने का हो कर रह गया है। भ्रष्टाचार से सराबोर इस विभाग के किस्से भले ही खबर नहीं बन पाते हो पर सच तो यह है कि मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के इस विभाग ने भ्रष्टाचार में अनूठा रिकार्ड बना चुका है।
संवाद भवन के किराये को लेकर चर्चा में आया यह विभाग अवैधानिक नियुक्ति को लेकर भी चर्चा में है। यही नहीं इन दिनों मोटर सायकल को टैक्सी बताकर लाखों भुगतान करने की वजह से यह विभाग सुर्खियों में है। जीरो भ्रष्टाचार की दुहई देने वाले डॉ. रमन सिंह के हम जनसंपर्क विभाग में भ्रष्टाचार के इस नंगा नाच पर भले ही लीपापोती की जा रही हो पर वास्तविकता यह है कि इसकी जड़े इतनी गहरी है कि इसे पार पाना आसान नहीं है। पत्रकारों से स्वागत-सत्कार के फंड के नाम पर जिस तरह से यहां बैठे अधिकारी अपना पेट भर रहे है उसे लेकर पत्रकार भले ही नाखुश हो लेकिन इसे खबर बनाने की हिमाकत इसलिए भी बड़े बैनर नहीं कर पाते क्योंकि उन्हें इस विभाग से विज्ञापन के रूप में मोटी रकम मिलती है। आखिर रिपोर्ट के बाद भी यदि बड़े अखबार खबर न छापे तो इसे क्या कहा जाए। अखबारों के इसी रवैये को लेकर आम लोगों में पत्रकारों की छवि धुमिल हुई है और ऐसी खबरें नहीं छपने पर भले ही वे अपने मालिकों को लाख कोसे लेकिन सुनना तो उन्हें ही पड़ता है।
बड़े बैनर के जलवे
बड़े बैनर के पत्रकारों के अपने जलवे है। पैसा भले ही न मिले पर मान सम्मान में कमी नहीं होती। खासकर अधिकारी और नेता तो ऐसे ही बड़े बैनरों के पत्रकारों के साथ बैठने में स्वयं कौ गौरवान्वित महसूस करते है। कहीं कोई कार्यक्रम हो या पत्रकार वार्ता आयोजको की निगाहें भी ऐसे ही पत्रकारों को ढूंढते रहती है। यही वजह है कि बड़े  बैनर वाले पत्रकार भी इसका एहसास कराने से नहीं चुकते।
पिछले दिनों मीडिया सीटी के कार्यक्रम में भी इसे महसूस किया गया। यहां बन चुके सभी मकान बड़े बैनर के पत्रकारों के है छोटे बैनर वाले तो कई पत्रकार अभी तक रजिस्ट्री तक नहीं करा पाये हैं।
नहले पे दहला
मीडिया सिटी के कायक्रम में मुख्यअतिथि बने डॉक्टर साहब को कई पत्रकार अपनी तरफ आकर्षित करते नजर आये। पत्रकारों ने मीडिया सिटी फेम टू के लिए लगे हाथ जमीन तक मांग ली। अपनी तारीफ से अभिभूत मुख्यमंत्री ने भी नहले पर दहला मारने में कसर नहीं छोड़ी। सभी मकान बनने के बाद जमीन देने की बात कह कर उन्होंने भले ही मांग मान ली पर वे जानते है कि सभी पत्रकारों के लिए मकान बना पाना आसान नहीं है। वहीं उन्होंने यह कटाक्ष करने से भी परहेज नहीं किया कि जमीन देने के बाद लोकार्पण के लिए उन्हें न केवल सात साल इंताजार करवाया गया वह भी दो चुनाव जीतने पड़े यानी चुनाव नहीं जीतते तो...!
और अंत में...
तमाम कोशिश के बाद भी प्रेस क्लब का चुनाव नहीं होने की वजह को लेकर चर्चा पदाधिकारियों के द्वारा वसूली किये जाने तक आ पहुंची है। अनिल पुसदकर को कोसने वाले अब खुद बैठे है ऐसे में यह चर्चा स्वाभाविक है कि कमाई की वजह से ही चुनाव नहीं् होते और इस्तीफा का नाटक करने वाले लोग प्रेस क्लब के बाहर अभी भी अपने को पदाधिकारी बताते घूम रहे हैं।