रविवार, 17 मार्च 2019

आख़िर गोदी मीडिया आया कहाँ से

आखिर गोदी मीडिया आया कहां से...
मीडिया की भूमिका को लेकर जिस तरह से सवाल उठाये जा रहे हैं उससे एक बात तो तय है कि कहीं न कहीं मीडिया की भूमिका ठीक नहीं है। मेरी यह बात उन लोगों को कड़वी लग सकती है जो इलेक्ट्रॉनिक चैनलों में काम करते हैं या इनके समर्थक है लेकिन सच तो यही है कि आज मीडिया की भूमिका को लेकर इलेक्ट्रॉनिक चैनलों की वजह से ही सवाल अधिक उठ रहे है लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं है कि प्रिंट मीडिया की भूमिका बहुत अच्छी है।
सरकारी विज्ञापनों की बोझ ने दोनों ही मीडिया के कामकाज के तरीके को बदला है। कभी विपक्ष की भूमिका में सरकार के खिलाफ सबसे दमदार माने जाने वाले मीडिया की भूमिका को लेकर आम जनों की शिकायतों को नजरअंदाज किया भी नहीं जाना चाहिए। खबरें रुक जाना या खबरों को नहीं दिखाने से ज्यादा खतरनाक सरकार का गुणगान करना हो सकता है।
यह बात मैं इसलिए दावे के साथ कह सकता हूं क्योंकि मीडिया की विश्वसनियता यदि घटी है तो उसकी वजह सरकार के पक्ष में खड़ा होना है। यह ठीक है कि अखबार या चैनल चलाने के लिए पैसों की जरूरत होती है लेकिन यदि सरकारी विज्ञापनों पर ही निर्भर होना पड़े तो पत्रकारिता पर ऊंगली उठना स्वाभाविक है।
इन दिनों पूरे देश में एक नयी बहस शुरु हुई है और यह बहस गोदी मीडिया को लेकर चल रही है। क्या सचमुच एक बड़ा वर्ग गोदी मीडिया हो चुका है जिसका काम केवल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की छवि चमकाने का रह गया है? सरकारी विज्ञापनों के तले क्या पत्रकारिता की आत्मा को दबा दी गई है और बाजारवाद के इस दौर में क्या सचमुच हर चीज बिकाउ होकर रह गया है?
ये ऐसे सवाल है जो पत्रकारिता के इतिहास को कलंकित करने के लिए काफी है। सरकार के इशारे में हिन्दू मुस्लिम और मंदिर-मस्जिद के मुद्दे को लेकर जिस तरह से बहस कराई जा रही है उससे क्या आम आदमी की तकलीफ कहीं खो नहीं गया है।
देश में जिस तरह से किसानों और नौजवानों के बेरोजगारी का मुद्दा सुरसा की तरह मुंह खोले खड़ा है। शिक्षा और स्वास्थ्य का बुरा हाल है और इस सबको छोड़ ह्दिू मुस्लिम पर बहस सिर्फ इसलिए दिखाया जाए क्योंकि इससे सरकार की छवि चमकेगी तो फिर पत्रकारिता को लेकर उंगली उठेगी ही।
आखिर यह गोदी मीडिया क्या है। अचानक रातों रात मीडिया को गोदी मीडिया क्यों कहा जाने लगा और इस आलोचना के बाद क्या मीडिया ने अपनी भूमिका बदली या सरकार की छवि बन पाई। दरअसल यह कहावत युगों से चला आ रहा है कि 'अति सर्वत्र वर्जतेंÓ। और मीडिया की सरकार की छवि बनाने की लगातार कोशिश की वजह से ही गोदी मीडिया का जन्म हुआ है। सरकार की गलतियों पर परदा डालने की कोशिश की वजह से ही गोदी मीडिया की चर्चा शुरु हुई है लेकिन जब मामला बढ़ता ही गया तो इस गोदी मीडिया की वह से मीडिया की छवि पर तो असर पड़ा ही है सरकार की इस कोशिश की भी आलोचना होने लगी है।
और अंत में...
प्रेस क्लब में आयोजित नंदन का अभिनंदन में शगुफ्ता शीरिन को छोड़ कई पदाधिकारी गायब रहे हालांकि इनके नहीं होने के बाद भी कार्यक्रम न केवल गरिमामय रहा बल्कि पत्रकारों ने देशभक्ति का गीत भी जोरदार गाया।

रविवार, 10 मार्च 2019

मीडिया की बदलती भूमिका...


वैसे तो हाल के सालों में सब कुछ बदल रहा है तब भला मीडिया की भूमिका क्यों न बदले? यह सवाल आम लोगों के जेहन में उठने लगा है तो इसकी वजह सत्ता का वह खेल है जिसमें फंसकर मीडिया के काम करने का तरीका है। इस तरीके ने पत्रकारों को अकेले खड़ा कर दिया है। या तो वे सत्ता के साथ खड़ा हो जाए या फिर अकेले हो जाए और देशद्रोही के परिधि में आ जाए क्योंकि सत्ता ने लोकतंत्र को ऐसे बना दी है कि जो सत्ता के साथ खड़ा है तब ही वह देशभक्त है।
यह सच है कि सत्ता के निशाने पर मीडिया हमेशा ही रही है और सत्ता में बैठे लोग यह कभी नहीं चाहते कि मीडिया ऐसी बातों को उजागर करे जो उनके लिए परेशानी का कारण बने।
हमने पहले ही लिखा है कि पत्रकारों के लिए स्वर्णिम काल कभी नहीं रहा सत्ता किसी की भी रही हो। उसने मीडिया पर दबान बनाने में कमी नहीं रखी। लेकिन हाल के सालों में जिस तरह से सत्ता के मायने बदले है और सत्ता ने बड़ी चतुराई से यह परोसा है कि सत्ता का मतलब ही देश प्रेम है तब मीडिया के लिए कोई और रास्ते का चुनाव कठिन होने लगा है।
पुलवामा की घटना के बाद जिस तरह से इलेक्ट्रानिक मीडिया की भूमि रही वह बालाकोट के बाद तो पाकिस्तान को नेस्तनाबूत तक जा पहुंची। अधिकांश मीडिया वहीं बात करने लगी जो सरकार को पसंद हो, यहां तक कि युद्ध का विरोध करने वालों को मीडिया ही देशद्रोही साबित करने में लग गई।
जबकि किसी भी स्थिति में युद्ध आखरी विकल्प है और यह होना भी चाहिए क्योंकि इससे नुकसान दोनों पक्षों का ही होता है। लेकिन हाल के सालों में जिस तरह से मीडिया के तौर तरीके बदले हैं वह हैरान कर देने वाला है। सत्ता के पीछे खड़े होने की वजह की जब हमने पड़ताल की तो पाया कि सत्ता ने जिस तरह न केवल विज्ञापनों के माध्यम से मीडिया को साधने का प्रयास किया है बल्कि देश प्रेम की आड़ में मीडिया पर दबाव भी बनाया है। देश प्रेम के खौलते तेल में पकौड़े तलकर देश को एक ऐसे दौर में पहुंचा दिया जहां सत्ता का साथ ही देशभक्ति है अन्यथा आप देशद्रोही साबित कर दिये जाओगे। इसलिए सरकार की पसंद पर हिन्दू, मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद गाय, गंगा पर आप जितना डिबेट करोगे सरकार उतना पैसा देगी। आप एक बार सरकार द्वारा मिल रहे विज्ञापन से पैसों की लालच में फंसे तो फंसते चले जाओगे।
एक अनुमान के मुताबिक इलेक्ट्रानिक मीडिया चलाने के लिए हर साल सौ-डेढ़ सौ करोड़ की जरूरत पड़ती है और यह राशि आखिर आये कहां से? यही वजह है कि पत्रकार वह हो गया है जो सत्ता के साथ नहीं तो वह देशद्रोही हो जायेगा। कोई कल्पना कर सकता है कि मोदी सरकार में भाजपा ने दो चैनलों का बहिष्कार सिर्फ इसलिए कर रखा है क्योंकि ये चैनल किसान, मजदूर, बेरोजगारी या फसल बीमा में हुए घोटाले के मुद्दे उठाते हैं और हिन्दू मुस्लिम पर डिबेट नहीं करते।
ऐसा नहीं है कि सत्ता का दबाव सिर्फ चैनलों पर है बल्कि अखबारों पर भी साफ देखा जा रहा है। विज्ञापन देने वाली कंपनियों पर तो दबाव डाला ही जाता है साथ ही ऐसे रिपोर्टरों को नौकरी से निकालने का भी फरमान सुनाते रहे हैं। पूण्यप्रसून बाजपेयी और अमिसार शर्मा का नाम तो कोई भूला नहीं है ये नाम इसलिए चर्चा में रहे क्योंकि ये चैनल में थे लेकिन करन थापर, बाबी घोष हिन्दुस्तान टाईम्स, हरीश खरे ट्रिब्यून और जय ठाकुर इकानॉमिक्स एण्ड पोलीटिकल विकली को कोई जानता है जिन्हें सरकार के दबाव में या तो नौकरी से हटा दिया गया या इस्तीफा देना पड़ा।
हम बता दे कि करण थापर ने स्वयं स्वीकार किया था कि मोदी सरकार के दबाव की वजह से वे इन दिनों नौकरी में नहीं जबकि बाबी घोष सत्ता के अपराध पर और हरीश खरे ट्रिब्यून में आधार कार्ड पर काम कर रहे थे। जय ठाकुर ने अडानी के खिलाफ खबर छापी थी।

सोमवार, 4 मार्च 2019

पत्रकारिता इन दिनों बेहद नाजुक दौर में


कोई माने या न माने, लेकिन यह सत्य है कि पत्रकारिता इन दिनों बेहद नाजुक दौर में है, आलोचना सहन नहीं करने की बढ़ती प्रवृत्ति का सर्वाधिक शिकार पत्रकार ही हुए है। स्वयं की सत्ता स्थापित करने और पैसों की भूख ने पत्रकारिता को ऐसे अंधेरे कमरे में कैद कर लिया है जहां से रोशनी की किरणें भी बेहद बारिक हो चली है। जहां से निकलना मुश्किल नजर आ रहा है।
हमने इसी जगह पर ट्रोल आर्मी के तेवर और इससे होने वाले खतरे को लेकर विस्तार दिया था लेकिन इस दौर में पत्रकारिता के लिए गंभीर चुनौती खड़ा हुआ है। झूठ की चादर इतनी उजली दिखाई देने लगा है कि सच को लेकर भ्रम होने लगा है।
प्रो सरकारी तंत्र से जिस तरह से मीडिया के सच को ट्रोल करना शुरु किया उससे भ्रम तो फैला ही मीडिया की विश्वसनियता को भी कटघरे में खड़ा करने का काम किया और यह सब इतने सलीके से किया गया कि वह आदमी भी मीडिया को गरियाने लगा जिसे अपने रोजी रोटी के अलावा किसी से मतलब नहीं है। मीडिया न हुआ गरीब की लुगाई हो गई जिसके साथ आप जब चाहे कुछ कर लो।
ऐसा नहीं है कि यह सब हाल के वर्षों में हुआ लेकिन चंद सालों में इसे धारदार तरीके से इस्तेमाल किया जाने लगा। दरअसल बगैर संवैधानिक अधिकार के मीडिया ने जिस तरह से राजनेताओं, अधिकारियों और अपराधियों के गठजोड़ पर प्रहार करना शुरु किया तब से ही इन तीनों के गठजोड़ ने अपनी ईज्जत बचाने मीडिया की विश्वसनीयता पर प्रहार शुरु किया।
नेताओं, अफसरों और माफियाओं के गठजोड़़ ने जिस तरह से देश में लूट खसोट की परिपाटी शुरु की उस पर मीडिया ने ही बाधा डाली कहा जाए तो गलत नहीं होगा। मीडिया के बढ़ते प्रभाव से लुट खसोट में बाधाओं को बर्दाश्त करना इन गठजोड़ के लिए कठिन काम था इसलिए साजिशन मीडिया की विश्वसनियता पर न केवल सवाल उठाये गये बल्कि पत्रकारों की हत्या तक की जाने लगी है। 
अपनी छवि चमकाये रखने मीडिया की छवि को बिगाडऩे के लिए जिस तरह का षडय़ंत्र किया गया वह शोध का विषय है। ऐसे गठजोड़ ने सत्ता के दम पर सबसे पहले ऐसे मीडिया घराने को अपने जाल में फंसाया जो पैसों के दिवाने थे। उन्हें भय और प्रलोभन से ऐसी खबरों के लिए मजबूर किया गयाजो उनके हितों की रक्षा तो करे ही उनकी छवि को भी चमकाने का काम करे। इसके बाद आपराधिक कमाई से मिले धन से स्वयं का मीडिया हाउस खड़ा करने की कोशिश में ऐसे पत्रकारों को अपने जाल में फंसाया जिसके नाम का इस्तेमाल शार्पशूटर की तरह कर ले।
इन सबके बाद भी जब मीडिया को जब वे प्रभावित नहीं कर पाये तब फेंक न्यूज और ट्रोल आर्मी का इस्तेमाल करना शुरु कर दिया। हालात को इस तरह से वे संचालित करने लगे कि आम आदमी की जरुरतों को नजरअंदाज किया जा सके और आम आदमी अपनी जरुरतों की बजाय उन मुद्दों में भटक जाए जिससे उनका ध्यान सरकार की तरफ से हट जाए और वे जाति, धर्म और देशभक्ति में उलझ कर रह जाए।
जन सरोकार के मुद्दे उठाने वालों को इतना ट्रोल किया जाए कि उसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा कर दिया जाए। उसे धर्म विरोधी, देश विरोधी साबित कर दिया जाए। राजनीति, अपराधियों और अफसरों के इन गठजोड़़ की वजह से पत्रकारिता के इस नाजुक दौर में जिस तरह से खबरों की विश्वसनीयता संकट में है वह देश के हित में कतई नहीं है। मीडिया हाउस तो पहले ही बंटे थे और अब पत्रकार भी बंटे नजर आने लगे है।
और अत में...
पिछले दिनों मोटर साइकिल की दुनिया में जावा ने जब कदम रखा तो उसने पत्रकार वार्ता का आयोजन किया। पत्रकार वार्ता में भीड़ बढ़ गई और इस भीड़ से आयोजकों में उत्साह भी था तो बेचैनी भी। क्योंकि पत्रकारों को ऐसे अवसर पर दिया जाने वाले उपहार कम पड़ गये। कुछ ने इस तरह के आयोजन में चेहरा और बैनर देख उपहार बांटने पर नाराजगी भी दिखाई। पर यह नाराजगी केवल आयोजन स्थल तक सिमट कर रह गया। वहां की अव्यवस्था पर किसी भी अखबार ने कुछ नहीं लिखा।