वैसे तो हाल के सालों में सब कुछ बदल रहा है तब भला मीडिया की भूमिका क्यों न बदले? यह सवाल आम लोगों के जेहन में उठने लगा है तो इसकी वजह सत्ता का वह खेल है जिसमें फंसकर मीडिया के काम करने का तरीका है। इस तरीके ने पत्रकारों को अकेले खड़ा कर दिया है। या तो वे सत्ता के साथ खड़ा हो जाए या फिर अकेले हो जाए और देशद्रोही के परिधि में आ जाए क्योंकि सत्ता ने लोकतंत्र को ऐसे बना दी है कि जो सत्ता के साथ खड़ा है तब ही वह देशभक्त है।
यह सच है कि सत्ता के निशाने पर मीडिया हमेशा ही रही है और सत्ता में बैठे लोग यह कभी नहीं चाहते कि मीडिया ऐसी बातों को उजागर करे जो उनके लिए परेशानी का कारण बने।
हमने पहले ही लिखा है कि पत्रकारों के लिए स्वर्णिम काल कभी नहीं रहा सत्ता किसी की भी रही हो। उसने मीडिया पर दबान बनाने में कमी नहीं रखी। लेकिन हाल के सालों में जिस तरह से सत्ता के मायने बदले है और सत्ता ने बड़ी चतुराई से यह परोसा है कि सत्ता का मतलब ही देश प्रेम है तब मीडिया के लिए कोई और रास्ते का चुनाव कठिन होने लगा है।
पुलवामा की घटना के बाद जिस तरह से इलेक्ट्रानिक मीडिया की भूमि रही वह बालाकोट के बाद तो पाकिस्तान को नेस्तनाबूत तक जा पहुंची। अधिकांश मीडिया वहीं बात करने लगी जो सरकार को पसंद हो, यहां तक कि युद्ध का विरोध करने वालों को मीडिया ही देशद्रोही साबित करने में लग गई।
जबकि किसी भी स्थिति में युद्ध आखरी विकल्प है और यह होना भी चाहिए क्योंकि इससे नुकसान दोनों पक्षों का ही होता है। लेकिन हाल के सालों में जिस तरह से मीडिया के तौर तरीके बदले हैं वह हैरान कर देने वाला है। सत्ता के पीछे खड़े होने की वजह की जब हमने पड़ताल की तो पाया कि सत्ता ने जिस तरह न केवल विज्ञापनों के माध्यम से मीडिया को साधने का प्रयास किया है बल्कि देश प्रेम की आड़ में मीडिया पर दबाव भी बनाया है। देश प्रेम के खौलते तेल में पकौड़े तलकर देश को एक ऐसे दौर में पहुंचा दिया जहां सत्ता का साथ ही देशभक्ति है अन्यथा आप देशद्रोही साबित कर दिये जाओगे। इसलिए सरकार की पसंद पर हिन्दू, मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद गाय, गंगा पर आप जितना डिबेट करोगे सरकार उतना पैसा देगी। आप एक बार सरकार द्वारा मिल रहे विज्ञापन से पैसों की लालच में फंसे तो फंसते चले जाओगे।
एक अनुमान के मुताबिक इलेक्ट्रानिक मीडिया चलाने के लिए हर साल सौ-डेढ़ सौ करोड़ की जरूरत पड़ती है और यह राशि आखिर आये कहां से? यही वजह है कि पत्रकार वह हो गया है जो सत्ता के साथ नहीं तो वह देशद्रोही हो जायेगा। कोई कल्पना कर सकता है कि मोदी सरकार में भाजपा ने दो चैनलों का बहिष्कार सिर्फ इसलिए कर रखा है क्योंकि ये चैनल किसान, मजदूर, बेरोजगारी या फसल बीमा में हुए घोटाले के मुद्दे उठाते हैं और हिन्दू मुस्लिम पर डिबेट नहीं करते।
ऐसा नहीं है कि सत्ता का दबाव सिर्फ चैनलों पर है बल्कि अखबारों पर भी साफ देखा जा रहा है। विज्ञापन देने वाली कंपनियों पर तो दबाव डाला ही जाता है साथ ही ऐसे रिपोर्टरों को नौकरी से निकालने का भी फरमान सुनाते रहे हैं। पूण्यप्रसून बाजपेयी और अमिसार शर्मा का नाम तो कोई भूला नहीं है ये नाम इसलिए चर्चा में रहे क्योंकि ये चैनल में थे लेकिन करन थापर, बाबी घोष हिन्दुस्तान टाईम्स, हरीश खरे ट्रिब्यून और जय ठाकुर इकानॉमिक्स एण्ड पोलीटिकल विकली को कोई जानता है जिन्हें सरकार के दबाव में या तो नौकरी से हटा दिया गया या इस्तीफा देना पड़ा।
हम बता दे कि करण थापर ने स्वयं स्वीकार किया था कि मोदी सरकार के दबाव की वजह से वे इन दिनों नौकरी में नहीं जबकि बाबी घोष सत्ता के अपराध पर और हरीश खरे ट्रिब्यून में आधार कार्ड पर काम कर रहे थे। जय ठाकुर ने अडानी के खिलाफ खबर छापी थी।
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