इन दिनों राजधानी के बड़े मीडिया समूह में प्रसार संख्या बढ़ाने की होड़ मची हुई है कोई प्रदेश में स्वयं को नम्बर वन बताने लगा है तो कोई राजधानी में अपने को नंबर वन बता रहा है । नबंर वन बनने की इस प्रतिस्पर्धा में उपहार तो बांटे ही जा रहे हैं विज्ञापन दरों पर भी समझौते हो रहे हैं । ऐसे कार्यक्रमों में मीडिया पार्टनर बने जा रहे हैं जिनके आयोजकों पर उंगली उठ रही है ।
यह प्रतिस्पर्धा खबरों पर भी दिखने लगी है । लेकिन कुछ खबरों पर विज्ञापन की मजबूरी भी झलकने लगी है । खबरों से संस्थान के नाम गायब हो जाते है या फिर खबरें छायावाद पर बन जाती है ।
इस सार्धा से पत्रकार बिरादरी खुश है कम से कम उन्हें रूटीन की खबर पर दबाव नहीं फेलना पड़ रहा है । यह अलग बात है कि राज बनने के बाद ग्रामीण रिर्पोटिंग व खोजी पत्रकारिता को सर्वाधिक नुकसान पहुंचा है ।
कभी- सर्वाधिक ग्रामीण रिपोटिंग प्रकाशित करने वाला देशबंधु प्रसार में पीछे छूट गया है तो इसकी वजह कहीं न कहीं विज्ञापनदाताओं का दबाव ही है ।
सरकार केविज्ञापन का दबाव तो अब भी कम नहीं हुआ है अब तो पत्रकार बिरादरी भी सरकार के कई किस्से सुनाते नहीं थकते । पत्रिका को पास जारी नहीं करना भी सरकारी दबाव का एक हिस्सा है । वैसे भी कौडिय़ों के मोल सरकारी जमीन लेकर कार्मशियल उपयोग की गलती हो तो दबाव तो झेलने ही पड़ेंगे । लेकिन कई अखबार वाले तो केवल सरकारी विज्ञापन के लालच में ही दबाव झेल रहे है ।
मजे में ब्यूरों
छत्तीगढ़ से निकलने वाले पत्र पत्रिकाओं से ज्यादा मजे में दूसरे प्रदेश से निकलने वाले पत्र-पत्रिकाओं के पत्रकारों के मजे है । विज्ञापन भी इन्हें खूब मिल रहा है और घूमने-फिरने के लिए जनसंपर्क से वाहन भी उपलब्ध हो जाते हैं ।
अब यह अलग बात है कि पत्रकारों के सत्कार में जितने पैसे खर्च नहीं होते उससे अधिक का बिल बन जाता है ।
रिश्तेदारी पर प्रहार...
भले ही इसे प्रतिस्पर्धा का नाम दिया जाये पर सच तो यह है कि अपने को मालिक का रिश्तेदार बताकर धौंस जमाना एक पुलिस अधिकारी को भारी पडऩे लगा हैं अब इसी अखबार के रिपोर्टर नाराज हैं और ढूंढ-ढूंढ कर खबरें बनाई जा रही है । आखिर थाने में रोज की करतूत कम नहीं है । यानी रिपोर्टर की जय हो ।
और अंत में ...
छत्तीसगढ़ में स्थापित होने छल-प्रपंच करने वाले एक अखबार को अब विज्ञापन वाला अखबार कहा जाने लगा है । आखिर इतना बड़ा काम्प्लेक्स कोई यूं ही खड़ा नहीं करता ।
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