सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

शराब लॉबी का बढ़ता दबाव

राजधानी में इन दिनों शराब आंदोलन जोरों पर है नियम कानून को ताक पर रखकर शराब दुकानें खोली जा रही है। कई जगह इसके खिलाफ आंदोलन भी चल रहे हैं और अखबार भी इस आंदोलन को छाप रहे हैं लेकिन कई आंदोलनकारी के चहेरे की वजह से खबर को प्रमुखता नहीं दी जा रही है। यह सच है कि इसके पीछे शराब माफियाओं का दबाव।
दरअसल शराब माफियाओं की पकड़ इतनी मजबूत है कि वे सरकार बनाने-बिगाड़ने का दावा करते नहीं थकते इसलिए पुलिस भी नियम-कानून का उल्लंघन कर रही शराब दुकानों की तरफ से न केवल आंखे फेर लेती है बल्कि आंदोलनकारियों को ही कुचलने की कोशिश करती है। मांगे कितनी भी जायज हो व्यवस्था बनाने के नाम पर जिस तरह से आंदोलन कुचले जाते हैं कमोबेश कुछ अखबारों का रवैया भी यही है। इसलिए आंदोलनकारियों के चेहरे देख खबरें छापी जाने लगी है।
वैसे शराब माफियाओं ने अपने पैसे की ताकत अखबारों पर भी दिखाना शुरु कर दिया है यह अलग बात है कि रिपोर्टर अब भी आंदोलनकारियों के साथ है लेकिन विज्ञापन विभाग का दबाव खबरों को रोकने की ताकत रखने लगी है। इस खबर में कितना दम है यह तो अखबार वाले ही जाने लेकिन शराब आंदोलन की खबरों को लेकर माफियाओं द्वारा पैकेज पहुंचाने की चर्चा ने अखबार की विश्वसनियता पर सवाल उठाया है। प्रतिस्पर्धा के युग में अधिकाधिक विज्ञापन बटोरने की ललक ने खबरों के साथ समझौता भी सिखाने लगा है। अब तो यह चर्चा आम होने लगी है कि किस सिटी चीफ को उसके अखबार की औकात के अनुसार पैसा दिया जाने लगा है ताकि आंदोलन को कुचला जा सके।
और अंत में....
शराब दुकान को लेकर शास्त्री बाजार के व्यापारी प्रकोष्ठ दुखी है सरकार के अड़ियल रवैये से दुखी एक व्यापारी ने जब एक पत्रकार से खबर अच्छे से छापने की गुजारिश की तो इस पत्रकार का जवाब था पहले रिश्ता रखने वाले को अपने आंदोलन से बाहर करो फिर देखना हमारे यहां खबरें कैसे छपती है।

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