सोमवार, 11 अक्टूबर 2010

स्वराज दास की मनमानी की कहानी...

कुरेटी के कारनामों की कहानी अभी लोगों की जुबान से उतर भी नहीं पाई है कि जनसंपर्क के एक और अधिकारी स्वराज दास की मनमानी चर्चे में हैं। मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह के घर पदस्थ इस अधिकारी स्वराज दास पर अब अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर मनमानी किए जाने को लेकर पत्र मिला है। पत्र को हम हू-बहू प्रकाशित नहीं कर सकते इसलिए उसके अर्थ ही प्रकाशित किए जा रहे हैं।
पत्र के अनुसार किसी समय अजीत जोगी के करीबी रहकर राजनीति का गुण सीखने वाले स्वराज दास ने अब जनसंपर्क में अपने प्रभाव के चलते राजनीति कर रहे हैं। चूंकि सचिव बैजेन्द्र कुमार जनसंपर्क से यादा पर्यावरण विभाग में यादा रूचि रखते हैं इसलिए भी यहां सब कुछ ठीक नहीं है। स्वराज दास जी जनसंपर्क के स्थापना व समाचार शाखा के भी प्रभारी है और उन पर पदोन्नति संबंधी फाईल दो सालों से रोक लेने का आरोप है। शासकीय कार्यक्रमों के कव्हरेज के लिए गाड़ी नहीं देकर कर्मचारियों को परेशान करने के अलावा संविदा कम्प्यूटर कर्मचारी को अनावश्यक परेशान करने का भी आरोप लगााया गया है। यही नहीं अखबारों को विलंब से समाचार भेजने व फोटोग्राफरों से दर्ुव्यवहार की भी शिकायत है।
पत्र के अनुसार मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने 27 सितम्बर 2008 की बैठक में संचालनालय व बड़े जिलों में फोटो ग्राफरों की सीधी भर्ती का निर्णय लिया था लेकिन जानबूझकर भर्ती नहीं की जा रही है जिसकी वजह से कई महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के कव्हरेज में दिक्कत आ रही है और अनुबंधित फोटोग्राफरों की सेवा ली जा रही है।
प्रताड़ित पत्रकार की पीड़ा
रामनगर से साप्ताहिक समाचार ओम दर्पण निकालने वाले पत्रकार ओम प्रकाश सिंह की पीड़ा यह है कि उसके साथ पुलिस वालों ने तो बदतमीजी की ही महिला सीएसपी श्वेता सिन्हा ने उन्हें एनकाउंडर करने की धमकी भी दी अब उन्हें झूठे केस में फंसा लेने का डर सता रहा है और उसने अपने साथ हुई घटना की शिकायत उच्चाधिकारियों से भी की है लेकिन कार्रवाई कोई नहीं कर रहा है।
चौथे स्तम्भ की शान
वफादार साथी द्वारा कथित रुप से प्रताड़ित होने वाले रेंजर एमआर साहू ने पत्रकार वार्ता लेकर अपनी आप बीती सुनाई है। श्री साहू का कहना है कि वे दुखी हैं एक तो नक्सली क्षेत्र में काम कर रहे हैं और उनके साथ गलत हो रहा है उनके साथ हो रहे गलत को छापने से चौथे स्तम्भ की शान बचाई जा सकती है।
और अंत में...
सीधे भास्कर के खिलाफ छापने वाली पत्रिका को अब सचेत होना होगा क्योंकि भास्कर भी बड़ी तैयारी में है और बलात छापने से भास्कर परहेज भी नहीं करने वाला है।

गुरुवार, 7 अक्टूबर 2010

सेटिंग और दलाली का मजा...

राय बनने के पहले भोपाल के पत्रकारों और पत्रकारिता की स्थिति को लेक रायपुर में अक्सर निंदा की जाती थी कि वहां किस तरह की पत्रकारिता होती है कैसे पत्रकार दो-पांच के लिए मंत्रियों और अधिकारियों से सेटिंग कर लेते हैं।
छत्तीसगढ़ राय बनने के बाद एक-दो साल तक तो सब ठीक-ठाक रहा लेकिन अब स्थिति बदल चुकी है। मत्था बदल अखबार से लेकर मंत्रियों व अधिकारियों के दलाली करते पत्रकार नजर आने लगे हैं। पिछले दिनों एक अखबार में जब एक अधिकारी के खिलाफ लगातार खबरें छपने लगी तो साप्ताहिक निकालने वाले अखबार के कथित पत्रकार ने खबर रूकवाने सौदेबाजी की और सेटिंग के एवज में न केवल अधिकारी से पैसे लिए बल्कि पत्रकार से भी कमीशन ले लिया। सौदा भी बड़ा नहीं था लेकिन इसकी चर्चा काफी हाउस तक जा पहुंचा है।
छत्तीसगढ में चल रहे इस दलाली और सेटिंग के खेल में कुछ प्रतिष्ठित अखबार के पत्रकार भी शामिल है कुछ इश्योरेंस पालिसी बेच रहे हैं तो कुछ काम ले रहे हैं। इस पत्रकार के द्वारा तो एक मंत्री से भी सेटिंग कर खबर रुकवाने का काम करने की चर्चा जोर पकड़ने लगी है। पत्रकारिता के इस नए परिवादी से आम लोगों का कितना भला होगा यह कहना मुश्किल है लेकिन नेताओं और अधिकारियों की डकैती जोर-शोर से चल पड़ी है।
और अंत में...
प्रतिष्ठित माने जाने वाले एक अखबार के पत्रकार को एक अधिकारी की खबर लग गई। पहले उसने उससे खबर पर चर्चा की और उठते हुए एक पॉलिसी थमा दी।

जमीन हड़पने की कोशिशें तेज....

छत्तीसगढ़ राय बनने के पहले ही यहां के अखबारों ने कौड़ी के मोल सरकारी जमीनों को हथियाने का खेल शुरू कर दिया। वैसे जानकारों का कहना है कि मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने अपने कार्यकाल में न केवल अखबार मालिकों को लाखों रुपये का विज्ञापन देकर खुश किया बल्कि प्रदेश के सभी बड़े शहरों की सबसे महंगी भूखंडों को भी कौडियों के मोल में इन अखबार वालों को दिया। यह अर्जुन सिंह जी की एक हाथ ले और एक हाथ दे कि नीति थी और इसका उन्होंने भरपूर फायदा भी उठाया फिर छत्तीसगढ़ राय बना तो यही खेल शुरू हुआ और रजबंधा तालाब जो मैदान रह गया वहां जमीनें दी गई। ऐसा नहीं है कि जमीनें केवल अखबार वालों को ही दी गई भाजपा शासनकाल में तो यहां भाजपा कार्यालय के नाम पर जमीन दी गई और जमीन का एक बड़ा हिस्सा बिल्डरों को दूकानें बनाकर बेचने के लिए दी गई।
रजबंधा में जो जमीनें दी गई उनके उपयोग को लेकर सवाल उठते रहे हैं कि आखिर अखबार चलाने के लिए दी गई जमीनों का कोई दूसरा उपयोग कैसे कर सकता है। दूनिया को निगम कानून सीखाने वाले अखबार मलिक अपने हिस्से की इन जमीनों का उपयोग क्या नियम कानून के तहत कर रहे हैं। यह एक ऐसा सवाल है जो अखबार के गिरते स्तर को प्रदर्शित करता है।
आम आदमी भले ही कुछ न करें लेकिन उसे मालूम है कि कौन-कौन अखबार वाले इन जमीनों का व्यवसायिक उपयोग कर रहे हैं और राजधानी में बैठे अधिकारी तो सिर्फ नौकरी कर रहे हैं. उन्होंने शायद अपनी आंखों पर पट्टी बांध रखी है इसलिए वे भी इनके खिलाफ कार्रवाई की हिम्मत नहीं जुटा पाते। कहा जाता है कि जब प्रशासन नपुसंक हो जाए को अराजकता की स्थिति बनती है और अखबारों के मामले में प्रशासन का यह रवैया आम आदमी को चुभने लगा है।
और अंत में.....
कभी श्रमजीवियों को बेशरमजीवी कहने वाले एक पत्रकार ने मलिक बनते ही न केवल श्रमजीवियों की जमीनें हड़पी बल्कि अब वह यहं व्यवसायिक काम्प्लेक्स भी बना रहा है ऐसे में उनकी पत्रकारिता पर ऊंगली उठना स्वभाविक है।

दलालों के जाल में बड़े अखबार

मीडिया पर मीडिया (केटी)
दलालों के जाल में बड़े अखबार
अब जमाना बदल गया है इसके साथ अखबारों की सोच में भी बदलाव हुआ है। कभी मिशन के रुप में चलने वाला इस धंधे पर अब पूरी तरह व्यवसायिकता हावी है और इस व्यवसाय को सत्ता के दलालों ने अपने कब्जे में कर लिया है।
प्रतिष्ठित अखबारों के रुप में अपनी पहचान बना चुके अखबारों में सत्ता के दलाल किस कदर हावी है इसकी कल्पना आम आदमी शायद ही कर पाए। ऐसा ही मध्यप्रदेश से प्रकाशित होने वाला एक अखबार जो छत्तीसगढ़ में स्वयं को स्थापित करने में लगा है। इस अखबार ने स्वयं को स्थापित करने पाठकों की बजाय सत्ता के एक ऐसे दलाल को अपने पाले में कर रखा है जो भाजपा के एक प्रदेश पदाधिकारी का न केवल रिश्तेदार है बल्कि भाजपाई उसे आम बोल चाल में सीएम का दत्तक पुत्र भी कहते हैं।
यह अलग बात है कि उसने इस अखबार को जमीन दिलाते-दिलाते स्वयं के लिए कौड़ी मोल में सरकारी जमीन हथिया ली। पेशे से डाक्टर इस दलाल के बारे में यह भी चर्चा है कि वह इस अखबार के परिशिष्ठ के लिए सरकार से लाखों रुपए का विज्ञापन तक दिलवाता है।
यह सिर्फ एक अखबार की कहानी है। ऐसे ही कई सत्ता के या मंत्री के दलाल रोज शाम संपादकों के कमरे में कॉफी की चुस्कियां लेते दिखाई पड़ जाएंगे।
आश्चर्य का विषय तो यह है कि स्वयं के अखबार में खबर नहीं छाप पाने वाले ये संपादक दूसरे पत्रकारों तक को दलाली करने की प्रेरणा देते नहीं शर्माते। सत्ता के दलालों के चंगुल में फंसते अखबार खबरों को किस तरह से पेश करते होंगे। समझा जा सकता है।
और अंत में...
किसानों के आंदोलन को असफल बनाने जब पूरा सरकारी तंत्र लगा हुआ था तब जनसंपर्क विभाग का एक अधिकारी सरकार के निर्देशों के विरुध्द पत्रकारों को फोन कर इसकी सफलता की कहानी सुनाने में व्यस्त था। सालों से जमें इस अधिकारी के रवैये से पत्रकार भी हैरान थे कि आखिर कुर्सी पाते ही ये सरकार के विरोधी कैसे हो गए।

कानून का तोड़ अखबारों में

नगर निगम का चुनाव आते ही राजनैतिक दलों के प्रत्याशियों के साथ अखबार वाले भी सक्रिय हो गए हैं। अखबारों को मालूम है कि चुनावी खर्च की राशि सीमित है और ऐसे में विज्ञापन का दबाव काम नहीं आने वाला है। प्रत्याशी भी चुनावी खर्च की सीमा से बंधे हैं यदि राजधानी के बड़े अखबारों को विज्ञापन दिए जाए तो चुनावी खर्च की सीमा समाप्त हो जाएगी तब भला वे आम लोगों को किस तरह से प्रभावित करेंगे। ऐसे में अखबार वालों ने भी रास्ता निकाल लिया है कि विज्ञापन की बजाय पक्ष में खबरें प्रकाशित की जाएगी। इससे प्रत्याशी चुनावी खर्च के हिसाब से तो बच ही जाएगा मतदाता भी खबरों से प्रभावित होकर वोट डाल सकता है।
राजधानी में चुनाव आयोग को ठेंगा दिखाने वाले इस करतूत में वे अखबार भी शामिल हैं जो अपने आप को प्रतिष्ठित व नम्बर वन की दौड़ में खड़ा करते हैं। कानून की अवहेलना करने वालों के खिलाफ खबरें छापने वाले अखबार किस तरह से कानून का माखौल उड़ाने के तरीके अपनाते है यह शर्मनाक है।
राजधानी के छोटे अखबार यदि ये तरीके अख्तियार करते तो यही बड़े अखबार के रिपोर्टर इसे शर्मनाक कहते नहीं थकते लेकिन अब तो बड़े अखबार भी पैसे कमाने की दौड़ में कानून की धाियां उड़ाने आमदा है।
ऐसे ही एक प्रतिष्ठित अखबार ने तो बकायदा स्कीम बना कर पार्षद प्रत्याशियों से संपर्क कर रहे हैं। एक वार्ड में एक ही प्रत्याशी को जीताने का ठेका लेने वाले इस अखबार के जाल में दर्जनभर से यादा प्रत्याशी फंस चुकेहैं। हालांकि कौन प्रत्याशी नहीं चाहेगा कि चुनावी खर्च के झंझट से बाचते हुए इस बड़े अखबार में फोटो छपे।
एक अखबार ने तो पार्टी स्तर पर बात कर ली है कि वह पार्टी प्रत्याशियों की फोटो छापेगा और उसे ही दमदार बतायेगा। जबकि छोटे अखबार तो 5 सौ-हजार कॉपी और कुछ रकम के एवज में प्रशंसा करने आतुर है।
चुनाव आयोग को ठेंगा दिखाने बनी इस तरह की योजनाओं से अखबार को तत्कालीन फायदा तो मिलेगा लेकिन अखबारों की विश्वसनियता पर सवाल उठेंगे। पत्रकारिता के इस गिरते स्तर को लेकर अब एक नई बहस भी शुरू हो गई है लेकिन इस बहस से अखबार मालिकों को कोई लेना-देना नहीं है।
और अंत में....
पिछले चुनावों में अखबारों के भुक्तभोगी एक पार्षद ने कहा कि पिछली बार तो केवल दो बड़े अखबार थे इस बार चार बड़े अखबारों को झेलना है। चुनाव जीतना है तो किसी को नाराज भी नहीं कर सकते। क्या बताऊं भैय्या ऐसे ऐसे दबाव आते हैं अब अपनी म....... किसे बतायें?

जो दिखता है वही बिकता है

अखबार की दुनिया भी अपनी तरह की दुनिया है। स्वयं को दिखाने की कोशिश में तामझाम के साथ-साथ अब ईनामी ड्रा भी निकाले जाते हैं ताकि पाठकों को खबर की बजाए ईनाम के लालच में अपना अखबार बेच सके।
राजधानी में तो इन दिनों गजब का नजारा है। नवभारत जैसे प्रतिष्ठित अखबार रीड एंड वीन के जरिये पाठक तक पहुंच रहा है। कभी छत्तीसगढ़ की धड़कन माने जाने वाला यह अखबार भी अब अपने प्रतिद्वंदियों से भयभीत है तो इसकी वजह अखबार का बाजारीकरण है।
दैनिक भास्कर तो तंबोला के जादू से अखबार बेचने आमदा है जबकि दैनिक भास्कर की टीम तोड़कर नए कलेवर में निकलने वाले अखबार नेशनल लुक को भी खबरों से यादा रद्दी इकट्ठा करने में भरोसा है वह तो पुराना एक माह का पेपर लाने पर 90 रुपए तक दे रहा है।
बाजारीकरण के इस दौड़ में हर चीज को बिकाऊ मानने वाले इन अखबारों को मालूम है कि सिर्फ अखबार बेचकर पैसा नहीं कमाया जा सकता। जितना अखबार बिकेगा उतना विज्ञापन मिलेगा और यही असली कमाई है।
इसलिए अखबार बेचने के लिए राजधानी के अखबारों में ऐसी प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई है। वैसे भी अखबार अब पूरी तरह से व्यवसायिक हो चुका है और एक अच्छे दुकानदार की तरह अखबारों में भी ऐसी खबरें कम ही छपती है जिससे सरकार रूपी मजबूत ग्राहक नाराज हो जाए।
सरकार में बैठे लोगों के लूटखसोट या फिर गलत कामों पर भी अखबार खामोश रहे या बड़े इंडस्ट्रीज में होने वाली घटना पर नाम नहीं छापना अब आम बात हो गई है और जब अखबारों में खबरें न हो तो ग्राहकों को पटाने सेल तो लगाने ही पड़ेंगे और जब पूरा जमाना ही दिखता है तो बिकता है वाली हो तो फिर अखबार के धंधेबाज इससे दूर कैसे रह सकते है।
इसलिए राजधानी के अखबार भी ग्राहकों को छोटे-छोटे ईनाम देकर सरकार से बड़ी राशि लूटने में लगे हैं। ऐसे ईनामी ड्रा लॉटरी के श्रेणी में नहीं आते क्योंकि ये नगद नहीं होते और न ही सीधे तौर पर टिकिट बेची जा रही है कहना मुश्किल है। अब ईनाम के लालच में कोई 10-20 अखबार खरीदे भी तो यह उसकी ही गलती है।
और अंत में....
नगर निगम चुनाव में कांग्रेस और भाजपा को छोड अन्य प्रत्याशियों की पीड़ा यह है कि भले ही वे चुनाव जीतने में सक्षम है लेकिन मीडिया उन्हें कवर नहीं कर रहा है। अब भला ऐसे प्रत्याशियों को कोई कैसे समझाये कि सिर्फ दमदार होने से काम नहीं चलेगा। मालदार भी होना पड़ेगा।

अखबार बना धंधेबाज

पूरी तरह से व्यवसायिक रुप ले चुकी छत्तीसगढ क़े बड़े अखबारों ने नगरीय निकाय के चुनाव में जितना बड़ा पैकेज उतना बड़ा मैसेज, की राह पर चलकर बेशर्मी की सारी हदें तो पार की ही आम आदमी के विश्वास पर भी प्रहार किया है।
इतना ही नहीं मिशन मानी जाने वाली इस संस्था पर जिस तरह से धंधेबाजी करने के आरोप लगने लगे हैं वह इसकी विश्वसनियता के लिए ठीक नहीं है। कभी अखबारों पर छपने वाली खबरों के आधार पर सरकार कार्रवाई करती थी लेकिन अब कार्रवाई नहीं होती तो इसकी वजह अखबार मालिकों का धंधेबाजी वाला रूख है। सत्ता हिलाने का दंभ भरने वाले पत्रकार भी अब सिर्फ नौकरी कर रहे हैं और अपनी कलमों को गिरवी रख दिया है।
छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता की अपनी पहचान रही है। यहां निकलने वाले अखबारों के मालिकों ने भी धंधेबाजों की भूमिका से अपने को हमेशा दूर ही रखा लेकिन राय बनने के बाद अखबारों मालिकों का रवैया बदला है।
पिछले दिनों एक प्रतिष्ठित अखबार ने जब अपने कवर पृष्ठ पर तेल वाला विज्ञापन छापा तो इस अखबार के संपादक ने इस्तीफा सौंप दिया था। लेकिन जब इसी अखबार के प्रबल प्रतिद्वंदी दैनिक भास्कर ने चार दिन पहले पूरे कवर पेज पर विज्ञापन प्रकाशित किया तो इस अखबार के पत्रकारों को कितनी शर्मिन्दगी उठानी पड़ी इसका अंदाजा शायद अखबार मालिक को भी नहीं होगा। बेचारे पत्रकार किसी के सामने मुंह खोलने की स्थिति में नहीं रह गए है। नीचे गिर कर धंधा करने की इस शैली की जगह-जगह आलोचना भी हो रही है।
और अंत में....
कवर पेज में पूरा पृष्ठ विज्ञापन छपने को लेकर जितनी मुंह उतनी बाते हो रही है कोई इसे पत्रकारिता के लिए कलंक तो कोई इसे बेशर्मी करार दे रहा है। ऐसे में इस अखबार से जुड़े पत्रकार की प्रतिक्रिया थी। अखबारी जमीन पर शॉपिंग मॉल मुफ्त में थोड़ी बन जाएगा।

पांडे का बिफरना और पत्रकारों की चुप्पी

वैशाली नगर के उपचुनाव में भाजपा पराजित हो गई और कांग्रेस जीत गई। इस हार जीत को लेकर मीडिया में मौजूद राजनैतिक समीक्षकों के अपने दावे है। परिणाम आने के पहले भी यहां के प्रतिष्ठत अखबारों ने उपचुनाव के परिणाम को लेकर क्या कुछ नहीं छापा। इस समीक्षा को लेकर मीडिया की भूमिका पर सवाल भी उठे। लेकिन अपने मुंह के लिए विख्यात पूर्व भाजपा नेता वीरेन्द्र पाण्डे इन दिनों किसानों के साथ खड़ें है। वे किसानों के साथ ऐसे अचानक क्यों खड़े है। यह तो वे ही जाने लेकिन 7 नवम्बर को वे प्रेस क्लब में आयोजित पत्रकार वार्ता में डॉ. रमन सिंह के खिलाफ विषवयन करते-करते विपक्षी दलों की भूमिका पर तो भड़के ही मीडिया पर भी बिफर पड़े। उन्होंने कहा कि रमन सरकार को लेकर संचार माहयमों की भूमिका भी संदिग्ध है। इतने पर भी वे चुप नहीं रहे उन्होंने बताया कि मतदान की सुबह यहां से निकलने वाले प्रतिष्ठित आखबारों ने रमन के रोड शो के साथ भाजपा की जीत को जोड़ते हुए खबरें छापी। वीरेन्द्र पाण्डे के आरोपों पर किसी भी पत्रकार ने कोई सवाल इसलिए भी नहीं उठाया क्योंकि पत्रकार जानते हैं कि इस तरह की खबरें प्रतिष्ठत व बड़े आखबार एक साथ कब और क्यों छापते है। आखबारों के साथ पत्रकारों की विश्वसनियता घटने की वजह भी यही है कि आखबार मालिक सरकारी विज्ञापन या भ्रष्टमंत्रियों के पैसों के सामने घुटने टेक देते है और सब कुछ फिल्ड में काम करने वाले पत्रकारों को झेलना पड़ता है। वीरेन्द्र पाण्डे अपनी बेबाक छवि के लिए जाने जाते हैं इसलिए भी अपनी भड़ास निकाल पाये। मीडिया की इस नई भूमिका को लेकर सवाल उठना स्वाभाविक है। कसडोल के विधायक राजकमल सिंघानिया से त्रस्त सैनी परिवार के द्वारा लिए गए पत्रकारवार्ता का हश्र सबकों मालूम है फिर सैनी परिवार क्यों बड़े आखबार पर विश्वास करे। वर्तमान में बड़े आखबार जिस तरह से जीभ लपलपाने लगे हैं उससे छोटे आखबारों की स्थिति और भी खराब हुई है अब वे भी बड़े आखबारों की राह पर चलने लगे है तो फिर पत्रकारिता को जिल्लत उठानी ही पड़ेगी।
और अंत में....
 जनसंपर्क विभाग इन दिनों मुख्यमंत्री के सचिव ब्रजेन्द्र कुमार सिंह लेकर चर्चा में हैं। अभी तक तो सीपीआर-डीपीआर आफिस ही जाते थे लेकिन ब्रजेन्द्र कुमार महीनों आफिस नहीं आते। अब जिसे संबंध बनाना हो वे मंत्रालय जाये। लेकिन कुछ लोगों की पीड़ा इतनी बस नहीं है असली पीड़ा तो उनकी द्धिवेदी व कुरेटी है जिनकी वे शिकायत करके भी मन हल्का नहीं कर पा रहे है। मंत्रालय के लिए पास का जो झंझट है।

जिद् करो...अखबार बदलो

जिद करो और दुनिया बदलों का स्लोगन लिए देशभर में अपने साम्राय स्थापित करने की होड़ में अपने घर को ही नहीं बचा पाने की चर्चा इन दिनों मीडिया जगत में छाई हुई है तो इसकी वजह इस अखबार की वह करतूत है जो आंख बंद कर तेज दौड़ने वालों के साथ अक्सर होती है।
जी हां! यहां हम अग्रवाल परिवार के दैनिक भास्कर की बा कर रहे हैं। इन दिनों दैनिक भास्कर में जो कुछ हो रहा है उसे कतई उचित नहीं कहा जा सकता। जिस तेजी से अखबार ने अपने पैर पसारे थे आज वह उतनी ही तेजी से बिखरने लगा है। ताम-झाम में माहिर इस अखबार को राजधानी रायपुर में मिल रहे लगातार झटके से इसके प्रसार संख्या में भी गिरावट की खब है और इसके पीछे प्रबंधन तंत्र की लापरवाही को बताया जा रहा है। वैसे तो राज एक्सप्रेस, नईदुनिया, राजस्थान पत्रिका जैसे बड़े अखबारों के अलावा नेशनल लुक जैसे अखबारों के द्वारा भी भास्कर से दुश्मनी की चर्चा है। नईदुनिया ने तो भा्कर में तोड़फोड़ की ही नेशनल लुक ने भी कोई कसर बाकी नहीं रखा और अब राज एक्सप्रेस और राजस्थान पत्रिका पर तो कील ढोकने की कोशिश के आरोप लगने गे हैं।
यहीं नहीं भास्कर के 14 माले का शापिंग माल का सपना भी तोड़ने कई लोग आमदा है। सरकार द्वारा कौड़ी के मोल मिले स्वयं की जमीन होते हुए भी किराये के भवन में जाने को लेकर भी यहां चर्चा गरम है। ऐसे में घटती प्रसार संख्या का तोहमत वह कैसे दूर करेगी यह ता वही जाने लेकिन कहा जा रहा है कि अंदरूनी हालात के चलते मनीष दवे को बिलासपुर भेज दिया गया है। जबकि बाहर से आए वे लोग सीटी संभालने लगे हैं जिन्हें न राजधानी का ज्ञान है और न ही यहां की गलियों से ही परिचित है।
और अंत में
अखबारों में प्रतिस्पर्धा नई नहीं है प्रसार संख्या बढ़ाने बड़े अखबारों में क्या कुछ नहीं होता लेकिन इन दिनों भास्कर की प्रसार संख्या घटाने एक मंत्री की रूचि चर्चा का विषय है। अपने लुक में पैसा लगाने वाले इस मंत्री के द्वारा इस काम में अपने मुखिया से भी सहमति लेने की चर्चा अब तो चौक चौराहों पर भी होने लगी है।

बुधवार, 6 अक्टूबर 2010

प्रतिष्ठा कुछ नहीं, आफत में अस्तित्व

छत्तीसगढ़ में पत्रिका ने जिस ढंग से आगाज किया उससे प्रतिष्ठित माने जाने वाले अखबारों का बौखलाना स्वाभाविक है। छत्तीसगढ़ के लूट में शामिल अखबार कैसे बंटवारा स्वीकार करे इसलिए सारी लड़ाई अस्तित्व को लेकर है। हम ही नहीं विष्णु सिंहा ने अग्रदूत में सोच की लकीर में कह दिया कि राजस्थानी और भोपाली अखबारों की लड़ाई से सारे नियम कायदे ताक पर रख दिया गया। भास्कर को तो पत्रिका का बंडल चुराते पकड़ा गया और शासन-प्रशासन मूक दर्शक बनी रही। किरायेदारों के अपराध पर मकान मालिक को धर दबोचने वाली इस सरकार ने इस अशांति फैलाने वाली करतूत पर सिर्फ जुर्म दर्ज किया वह भी पत्रिका के दबाव पर।
सोच की लकीर में विष्णु सिन्हा ने अखबारों के बेशर्मी को भी उजागर किया है कि किस तरह से नवभारत ने अग्रिम आधिपत्य पर बिल्डिंग खड़ा कर दी या समवेत शिखर को कैसे जमीन मिल गई। अमृत संदेश के अवैध निर्माण पर भी शासन-प्रशासन चुप है तो यह छत्तीसगढ़ को लुटने की साजिश नहीं तो और क्या है। जिस तह से सरकारी विज्ञापनों के लिए जीभ लपलपाई जाती है और चरण वंदन कर छत्तीसगढ़ को लुटने वाले अधिकारी व नेताओं का यशोगान किया जाता है उससे आम आदमी बेहद दुखी है वह चाहता है कि जब अवैध निर्माण टूटे तो अखबारों पर भी कार्रवाई हो। जब नियम कायदों की बात हो तो इसके जद में अखबार भी रहे।
राजस्थानी और भोपाली के अलावा धंधेबाजों के अखबारों का एक ही मकसद रहा है और सरकार में बैठे लोग भी इन धंधेबाजों को मदद करने आतुर है। अखबार मालिकों की इस करतूत पर सरकार जिस तरह से मुहर लगाकर अपना उल्लू सीधा कर रही है वह अंयंत्र देखने को नहीं मिलेगा। नियमों को ताक पर रखकर पत्रकारों को कीड़े-मकौड़े की तरह इस्तेमाल करने वाले अखबारों ने पत्रकारिता ही नहीं इस देश का भी नुकसान किया है। यदि किसी सरकार को बनियों की सरकार कहा जाता है तो कई अखबार भी इन्हीं की है जिनका मकसद सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाना है ऐसे में सरकार किस नियम के तहत इन्हें कौड़ियों के मोल जमीन व विज्ञापन देती है यह सरकार ही जाने। हमारे पास ढेरों शिकायतें अखबारों की दादागिरी की आती है और हम कोशिश करते हैं कि पत्रकारिता अब भी मिशन के रुप में चले। देश निर्माण की जिम्मेदारी वहन करें।
और अंत में...
कहते हैं लोग अपने दुख से कम दूरे के सुख से यादा दुखी है यही हाल अखबारों में भी है। पत्रिका के आने से कई अखबार वाले विज्ञापन के बंटवारे से दुखी है लेकिन एक अखबार ऐसा है जिसे पत्रिका के आने से नुकसान तो हुआ है लेकिन वह इस नुकसान के बाद भी खुशी मना रहा है क्योंकि अकेले भास्कर से लड़ाई संभव नहीं अब दो मिलकर भास्कर को निपटायेंगे। दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है न।

सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

तेल लगाओ, विज्ञापन पाओ

संवाद में विज्ञापन देने नियम कानून नहीं
 छत्तीसगढ़ संवाद में विज्ञापन जारी करने का कोई नियम कानून नहीं है। जो जितना चापलूती करेगा उसे उतना विज्ञापन जारी किया जाता है। चापलूसी के आगे प्रसार संख्या भी बेमानी है।
मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के इस विभाग में भर्राशाही और अफसर शाही इस कदर हावी है कि कई अखबार वाले भी कुछ कहने-छापने से हिचकते हैं। इस संबंध में जब सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगी गई तो यह जानकारी संवाद में चल रहे भर्राशाही का पोल खोलने के लिए काफी है।
संवाद ने 1 मई 2009 से 25 जुलाई 2009 से 25 जुलाई 2009 के बीच जो विज्ञापन जारी किए है दिल्ली से प्रकाशित होने वाले महामेघा को 50 हजार का विज्ञापन दिया गया। इसी तरह भिलाई से प्रकाशित अगास दिया को 80 हजार का विज्ञापन दिया गया। हरिभूमि और प्रखर समाचार को एक ही ग्रेट का बनाया गया और दोनों को तीन-तीन लाख का विज्ञापन दिया गया। सर्वाधिक विज्ञापन मुख्यमंत्री के गृह जिले राजनांदगांव के अखबारों को दिया गया जबकि दिल्ली के हिन्दी जगत को 50 हजार और इंदौर के ग्राम संस्कृति को 30 हजार का विज्ञापन दिया गया दिल्ली के ही नया ज्ञानोदय को 25 हजार लोकमाया हिन्दसत को 50-50 हजार का विज्ञापन दिया गया पटना के राष्ट्रीय प्रसंग को 75 हजार का विज्ञापन दिया गया।
इसके मुकाबले छत्तीसगढ़ के अखबारों को 5-10 हजार का विज्ञापन ही दिया गया। इस आंकड़े से स्पष्ट है कि जनसंपर्क और संवाद में किस तरह का भर्राशाही व चापलूसी चल रहा है। आश्चर्य का विषय तो यह है कि इन विज्ञापनों की आड़ में कमीशनखोरी की चर्चा भी जोर-शोर से है।

शराब लॉबी का बढ़ता दबाव

राजधानी में इन दिनों शराब आंदोलन जोरों पर है नियम कानून को ताक पर रखकर शराब दुकानें खोली जा रही है। कई जगह इसके खिलाफ आंदोलन भी चल रहे हैं और अखबार भी इस आंदोलन को छाप रहे हैं लेकिन कई आंदोलनकारी के चहेरे की वजह से खबर को प्रमुखता नहीं दी जा रही है। यह सच है कि इसके पीछे शराब माफियाओं का दबाव।
दरअसल शराब माफियाओं की पकड़ इतनी मजबूत है कि वे सरकार बनाने-बिगाड़ने का दावा करते नहीं थकते इसलिए पुलिस भी नियम-कानून का उल्लंघन कर रही शराब दुकानों की तरफ से न केवल आंखे फेर लेती है बल्कि आंदोलनकारियों को ही कुचलने की कोशिश करती है। मांगे कितनी भी जायज हो व्यवस्था बनाने के नाम पर जिस तरह से आंदोलन कुचले जाते हैं कमोबेश कुछ अखबारों का रवैया भी यही है। इसलिए आंदोलनकारियों के चेहरे देख खबरें छापी जाने लगी है।
वैसे शराब माफियाओं ने अपने पैसे की ताकत अखबारों पर भी दिखाना शुरु कर दिया है यह अलग बात है कि रिपोर्टर अब भी आंदोलनकारियों के साथ है लेकिन विज्ञापन विभाग का दबाव खबरों को रोकने की ताकत रखने लगी है। इस खबर में कितना दम है यह तो अखबार वाले ही जाने लेकिन शराब आंदोलन की खबरों को लेकर माफियाओं द्वारा पैकेज पहुंचाने की चर्चा ने अखबार की विश्वसनियता पर सवाल उठाया है। प्रतिस्पर्धा के युग में अधिकाधिक विज्ञापन बटोरने की ललक ने खबरों के साथ समझौता भी सिखाने लगा है। अब तो यह चर्चा आम होने लगी है कि किस सिटी चीफ को उसके अखबार की औकात के अनुसार पैसा दिया जाने लगा है ताकि आंदोलन को कुचला जा सके।
और अंत में....
शराब दुकान को लेकर शास्त्री बाजार के व्यापारी प्रकोष्ठ दुखी है सरकार के अड़ियल रवैये से दुखी एक व्यापारी ने जब एक पत्रकार से खबर अच्छे से छापने की गुजारिश की तो इस पत्रकार का जवाब था पहले रिश्ता रखने वाले को अपने आंदोलन से बाहर करो फिर देखना हमारे यहां खबरें कैसे छपती है।

बड़े अखबारों की नई खिचड़ी

छत्तीसगढ़ में स्थापित हो चुके बड़े अखबारों की सरकार के भ्रष्ट मंत्रियों के साथ अलग तरह की खिचड़ी पक रही है। वैसे भी राय बनने के बाद छत्तीसगढ़ की मीडिया में नया परिवर्तन आया है कभी रुपया दो रुपया फीट पर जमीन पाने भोपाल के चक्कर लगाने पड़ते थे और दूसरे उद्योग चलाने से पहले सोचना पड़ता था।
राय बनने के बाद परिवर्तन बड़ी तेजी से आया है। सकारात्मक खबरों के चक्कर में उन खबरों पर भी बंदिशें लगनी शुरु हो गई जिससे राय या देश को सीधे नुकसान उठाना पड़ रहा है। कोई अखबार वाला शॉपिंग मॉल की तैयारी में है तो कोई आयरन उद्योग में कूद रहा है। किसी के नए धंधे करने से किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती। इसलिए अखबार वाले भी अखबार के साथ दूसरा धंधा कर सकते हैं लेकिन धंधा के लिए गंदा समझौता उचित नहीं है।
यही वजह है कि अखबारों की विश्वसनियता पर सवाल उठने लगे हैं। चौक-चौराहों पर इसकी चर्चा होने लगी है और रिपोर्टरों को यह सब भुगतना भी पड़ रहा है। इन दिनों ग्राम सुराज को लेकर भी अखबारों की भूमिका भाढ की तरह हो गई थी। सुराज दल को जिस पैमाने पर गांव वालों के कोप भाजन बनना पड़ा है वह खबरों में कहीं नहीं दिखी। सरकारी विज्ञापन के दबाव में स्थानीय अखबार जिस तरह से सरकारी प्रचार का माध्यम बनता जा रहा है वह स्वस्थ पत्रकारिता के लिए चिंता का विषय है। भ्रष्ट मंत्रियों के विज्ञापन भी उतनी ही प्रमुखता से प्रकाशित किए जाने लगे है ऐसे में आम लोगों की सोच भी अखबारों के प्रति बदल जाए तो नुकसान इस प्रदेश का ही होना है।
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संवाद के खिलाफ खबर जुटाने में लगे एक पत्रकार की किस्मत अच्छी है कि उसकी नौकरी अभी तक उस अखबार के दफ्तर में कायम है वरना संवाद के खाटी अधिकारी ने तो फोन कर उसे नौकरी से निकालने का फरमान सुना ही डाला था।