कहने को तो जनसंपर्क विभाग का काम सरकार और जनता के बीच सेतु का है लेकिन छत्तीसगढ़ में जनसंपर्क विभाग का काम न केवल सरकार की चापलूसी करना रह गया है बल्कि यहां बैठे अपसरों का काम मीडिया को धमकाने का हो कर रह गया है। भ्रष्टाचार से सराबोर इस विभाग के किस्से भले ही खबर नहीं बन पाते हो पर सच तो यह है कि मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के इस विभाग ने भ्रष्टाचार में अनूठा रिकार्ड बना चुका है।
संवाद भवन के किराये को लेकर चर्चा में आया यह विभाग अवैधानिक नियुक्ति को लेकर भी चर्चा में है। यही नहीं इन दिनों मोटर सायकल को टैक्सी बताकर लाखों भुगतान करने की वजह से यह विभाग सुर्खियों में है। जीरो भ्रष्टाचार की दुहई देने वाले डॉ. रमन सिंह के हम जनसंपर्क विभाग में भ्रष्टाचार के इस नंगा नाच पर भले ही लीपापोती की जा रही हो पर वास्तविकता यह है कि इसकी जड़े इतनी गहरी है कि इसे पार पाना आसान नहीं है। पत्रकारों से स्वागत-सत्कार के फंड के नाम पर जिस तरह से यहां बैठे अधिकारी अपना पेट भर रहे है उसे लेकर पत्रकार भले ही नाखुश हो लेकिन इसे खबर बनाने की हिमाकत इसलिए भी बड़े बैनर नहीं कर पाते क्योंकि उन्हें इस विभाग से विज्ञापन के रूप में मोटी रकम मिलती है। आखिर रिपोर्ट के बाद भी यदि बड़े अखबार खबर न छापे तो इसे क्या कहा जाए। अखबारों के इसी रवैये को लेकर आम लोगों में पत्रकारों की छवि धुमिल हुई है और ऐसी खबरें नहीं छपने पर भले ही वे अपने मालिकों को लाख कोसे लेकिन सुनना तो उन्हें ही पड़ता है।
बड़े बैनर के जलवे
बड़े बैनर के पत्रकारों के अपने जलवे है। पैसा भले ही न मिले पर मान सम्मान में कमी नहीं होती। खासकर अधिकारी और नेता तो ऐसे ही बड़े बैनरों के पत्रकारों के साथ बैठने में स्वयं कौ गौरवान्वित महसूस करते है। कहीं कोई कार्यक्रम हो या पत्रकार वार्ता आयोजको की निगाहें भी ऐसे ही पत्रकारों को ढूंढते रहती है। यही वजह है कि बड़े बैनर वाले पत्रकार भी इसका एहसास कराने से नहीं चुकते।
पिछले दिनों मीडिया सीटी के कार्यक्रम में भी इसे महसूस किया गया। यहां बन चुके सभी मकान बड़े बैनर के पत्रकारों के है छोटे बैनर वाले तो कई पत्रकार अभी तक रजिस्ट्री तक नहीं करा पाये हैं।
नहले पे दहला
मीडिया सिटी के कायक्रम में मुख्यअतिथि बने डॉक्टर साहब को कई पत्रकार अपनी तरफ आकर्षित करते नजर आये। पत्रकारों ने मीडिया सिटी फेम टू के लिए लगे हाथ जमीन तक मांग ली। अपनी तारीफ से अभिभूत मुख्यमंत्री ने भी नहले पर दहला मारने में कसर नहीं छोड़ी। सभी मकान बनने के बाद जमीन देने की बात कह कर उन्होंने भले ही मांग मान ली पर वे जानते है कि सभी पत्रकारों के लिए मकान बना पाना आसान नहीं है। वहीं उन्होंने यह कटाक्ष करने से भी परहेज नहीं किया कि जमीन देने के बाद लोकार्पण के लिए उन्हें न केवल सात साल इंताजार करवाया गया वह भी दो चुनाव जीतने पड़े यानी चुनाव नहीं जीतते तो...!
और अंत में...
तमाम कोशिश के बाद भी प्रेस क्लब का चुनाव नहीं होने की वजह को लेकर चर्चा पदाधिकारियों के द्वारा वसूली किये जाने तक आ पहुंची है। अनिल पुसदकर को कोसने वाले अब खुद बैठे है ऐसे में यह चर्चा स्वाभाविक है कि कमाई की वजह से ही चुनाव नहीं् होते और इस्तीफा का नाटक करने वाले लोग प्रेस क्लब के बाहर अभी भी अपने को पदाधिकारी बताते घूम रहे हैं।
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