आखिर गोदी मीडिया आया कहां से...
मीडिया की भूमिका को लेकर जिस तरह से सवाल उठाये जा रहे हैं उससे एक बात तो तय है कि कहीं न कहीं मीडिया की भूमिका ठीक नहीं है। मेरी यह बात उन लोगों को कड़वी लग सकती है जो इलेक्ट्रॉनिक चैनलों में काम करते हैं या इनके समर्थक है लेकिन सच तो यही है कि आज मीडिया की भूमिका को लेकर इलेक्ट्रॉनिक चैनलों की वजह से ही सवाल अधिक उठ रहे है लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं है कि प्रिंट मीडिया की भूमिका बहुत अच्छी है।
सरकारी विज्ञापनों की बोझ ने दोनों ही मीडिया के कामकाज के तरीके को बदला है। कभी विपक्ष की भूमिका में सरकार के खिलाफ सबसे दमदार माने जाने वाले मीडिया की भूमिका को लेकर आम जनों की शिकायतों को नजरअंदाज किया भी नहीं जाना चाहिए। खबरें रुक जाना या खबरों को नहीं दिखाने से ज्यादा खतरनाक सरकार का गुणगान करना हो सकता है।
यह बात मैं इसलिए दावे के साथ कह सकता हूं क्योंकि मीडिया की विश्वसनियता यदि घटी है तो उसकी वजह सरकार के पक्ष में खड़ा होना है। यह ठीक है कि अखबार या चैनल चलाने के लिए पैसों की जरूरत होती है लेकिन यदि सरकारी विज्ञापनों पर ही निर्भर होना पड़े तो पत्रकारिता पर ऊंगली उठना स्वाभाविक है।
इन दिनों पूरे देश में एक नयी बहस शुरु हुई है और यह बहस गोदी मीडिया को लेकर चल रही है। क्या सचमुच एक बड़ा वर्ग गोदी मीडिया हो चुका है जिसका काम केवल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की छवि चमकाने का रह गया है? सरकारी विज्ञापनों के तले क्या पत्रकारिता की आत्मा को दबा दी गई है और बाजारवाद के इस दौर में क्या सचमुच हर चीज बिकाउ होकर रह गया है?
ये ऐसे सवाल है जो पत्रकारिता के इतिहास को कलंकित करने के लिए काफी है। सरकार के इशारे में हिन्दू मुस्लिम और मंदिर-मस्जिद के मुद्दे को लेकर जिस तरह से बहस कराई जा रही है उससे क्या आम आदमी की तकलीफ कहीं खो नहीं गया है।
देश में जिस तरह से किसानों और नौजवानों के बेरोजगारी का मुद्दा सुरसा की तरह मुंह खोले खड़ा है। शिक्षा और स्वास्थ्य का बुरा हाल है और इस सबको छोड़ ह्दिू मुस्लिम पर बहस सिर्फ इसलिए दिखाया जाए क्योंकि इससे सरकार की छवि चमकेगी तो फिर पत्रकारिता को लेकर उंगली उठेगी ही।
आखिर यह गोदी मीडिया क्या है। अचानक रातों रात मीडिया को गोदी मीडिया क्यों कहा जाने लगा और इस आलोचना के बाद क्या मीडिया ने अपनी भूमिका बदली या सरकार की छवि बन पाई। दरअसल यह कहावत युगों से चला आ रहा है कि 'अति सर्वत्र वर्जतेंÓ। और मीडिया की सरकार की छवि बनाने की लगातार कोशिश की वजह से ही गोदी मीडिया का जन्म हुआ है। सरकार की गलतियों पर परदा डालने की कोशिश की वजह से ही गोदी मीडिया की चर्चा शुरु हुई है लेकिन जब मामला बढ़ता ही गया तो इस गोदी मीडिया की वह से मीडिया की छवि पर तो असर पड़ा ही है सरकार की इस कोशिश की भी आलोचना होने लगी है।
और अंत में...
प्रेस क्लब में आयोजित नंदन का अभिनंदन में शगुफ्ता शीरिन को छोड़ कई पदाधिकारी गायब रहे हालांकि इनके नहीं होने के बाद भी कार्यक्रम न केवल गरिमामय रहा बल्कि पत्रकारों ने देशभक्ति का गीत भी जोरदार गाया।
मीडिया की भूमिका को लेकर जिस तरह से सवाल उठाये जा रहे हैं उससे एक बात तो तय है कि कहीं न कहीं मीडिया की भूमिका ठीक नहीं है। मेरी यह बात उन लोगों को कड़वी लग सकती है जो इलेक्ट्रॉनिक चैनलों में काम करते हैं या इनके समर्थक है लेकिन सच तो यही है कि आज मीडिया की भूमिका को लेकर इलेक्ट्रॉनिक चैनलों की वजह से ही सवाल अधिक उठ रहे है लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं है कि प्रिंट मीडिया की भूमिका बहुत अच्छी है।
सरकारी विज्ञापनों की बोझ ने दोनों ही मीडिया के कामकाज के तरीके को बदला है। कभी विपक्ष की भूमिका में सरकार के खिलाफ सबसे दमदार माने जाने वाले मीडिया की भूमिका को लेकर आम जनों की शिकायतों को नजरअंदाज किया भी नहीं जाना चाहिए। खबरें रुक जाना या खबरों को नहीं दिखाने से ज्यादा खतरनाक सरकार का गुणगान करना हो सकता है।
यह बात मैं इसलिए दावे के साथ कह सकता हूं क्योंकि मीडिया की विश्वसनियता यदि घटी है तो उसकी वजह सरकार के पक्ष में खड़ा होना है। यह ठीक है कि अखबार या चैनल चलाने के लिए पैसों की जरूरत होती है लेकिन यदि सरकारी विज्ञापनों पर ही निर्भर होना पड़े तो पत्रकारिता पर ऊंगली उठना स्वाभाविक है।
इन दिनों पूरे देश में एक नयी बहस शुरु हुई है और यह बहस गोदी मीडिया को लेकर चल रही है। क्या सचमुच एक बड़ा वर्ग गोदी मीडिया हो चुका है जिसका काम केवल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की छवि चमकाने का रह गया है? सरकारी विज्ञापनों के तले क्या पत्रकारिता की आत्मा को दबा दी गई है और बाजारवाद के इस दौर में क्या सचमुच हर चीज बिकाउ होकर रह गया है?
ये ऐसे सवाल है जो पत्रकारिता के इतिहास को कलंकित करने के लिए काफी है। सरकार के इशारे में हिन्दू मुस्लिम और मंदिर-मस्जिद के मुद्दे को लेकर जिस तरह से बहस कराई जा रही है उससे क्या आम आदमी की तकलीफ कहीं खो नहीं गया है।
देश में जिस तरह से किसानों और नौजवानों के बेरोजगारी का मुद्दा सुरसा की तरह मुंह खोले खड़ा है। शिक्षा और स्वास्थ्य का बुरा हाल है और इस सबको छोड़ ह्दिू मुस्लिम पर बहस सिर्फ इसलिए दिखाया जाए क्योंकि इससे सरकार की छवि चमकेगी तो फिर पत्रकारिता को लेकर उंगली उठेगी ही।
आखिर यह गोदी मीडिया क्या है। अचानक रातों रात मीडिया को गोदी मीडिया क्यों कहा जाने लगा और इस आलोचना के बाद क्या मीडिया ने अपनी भूमिका बदली या सरकार की छवि बन पाई। दरअसल यह कहावत युगों से चला आ रहा है कि 'अति सर्वत्र वर्जतेंÓ। और मीडिया की सरकार की छवि बनाने की लगातार कोशिश की वजह से ही गोदी मीडिया का जन्म हुआ है। सरकार की गलतियों पर परदा डालने की कोशिश की वजह से ही गोदी मीडिया की चर्चा शुरु हुई है लेकिन जब मामला बढ़ता ही गया तो इस गोदी मीडिया की वह से मीडिया की छवि पर तो असर पड़ा ही है सरकार की इस कोशिश की भी आलोचना होने लगी है।
और अंत में...
प्रेस क्लब में आयोजित नंदन का अभिनंदन में शगुफ्ता शीरिन को छोड़ कई पदाधिकारी गायब रहे हालांकि इनके नहीं होने के बाद भी कार्यक्रम न केवल गरिमामय रहा बल्कि पत्रकारों ने देशभक्ति का गीत भी जोरदार गाया।