रविवार, 17 मार्च 2019

आख़िर गोदी मीडिया आया कहाँ से

आखिर गोदी मीडिया आया कहां से...
मीडिया की भूमिका को लेकर जिस तरह से सवाल उठाये जा रहे हैं उससे एक बात तो तय है कि कहीं न कहीं मीडिया की भूमिका ठीक नहीं है। मेरी यह बात उन लोगों को कड़वी लग सकती है जो इलेक्ट्रॉनिक चैनलों में काम करते हैं या इनके समर्थक है लेकिन सच तो यही है कि आज मीडिया की भूमिका को लेकर इलेक्ट्रॉनिक चैनलों की वजह से ही सवाल अधिक उठ रहे है लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं है कि प्रिंट मीडिया की भूमिका बहुत अच्छी है।
सरकारी विज्ञापनों की बोझ ने दोनों ही मीडिया के कामकाज के तरीके को बदला है। कभी विपक्ष की भूमिका में सरकार के खिलाफ सबसे दमदार माने जाने वाले मीडिया की भूमिका को लेकर आम जनों की शिकायतों को नजरअंदाज किया भी नहीं जाना चाहिए। खबरें रुक जाना या खबरों को नहीं दिखाने से ज्यादा खतरनाक सरकार का गुणगान करना हो सकता है।
यह बात मैं इसलिए दावे के साथ कह सकता हूं क्योंकि मीडिया की विश्वसनियता यदि घटी है तो उसकी वजह सरकार के पक्ष में खड़ा होना है। यह ठीक है कि अखबार या चैनल चलाने के लिए पैसों की जरूरत होती है लेकिन यदि सरकारी विज्ञापनों पर ही निर्भर होना पड़े तो पत्रकारिता पर ऊंगली उठना स्वाभाविक है।
इन दिनों पूरे देश में एक नयी बहस शुरु हुई है और यह बहस गोदी मीडिया को लेकर चल रही है। क्या सचमुच एक बड़ा वर्ग गोदी मीडिया हो चुका है जिसका काम केवल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की छवि चमकाने का रह गया है? सरकारी विज्ञापनों के तले क्या पत्रकारिता की आत्मा को दबा दी गई है और बाजारवाद के इस दौर में क्या सचमुच हर चीज बिकाउ होकर रह गया है?
ये ऐसे सवाल है जो पत्रकारिता के इतिहास को कलंकित करने के लिए काफी है। सरकार के इशारे में हिन्दू मुस्लिम और मंदिर-मस्जिद के मुद्दे को लेकर जिस तरह से बहस कराई जा रही है उससे क्या आम आदमी की तकलीफ कहीं खो नहीं गया है।
देश में जिस तरह से किसानों और नौजवानों के बेरोजगारी का मुद्दा सुरसा की तरह मुंह खोले खड़ा है। शिक्षा और स्वास्थ्य का बुरा हाल है और इस सबको छोड़ ह्दिू मुस्लिम पर बहस सिर्फ इसलिए दिखाया जाए क्योंकि इससे सरकार की छवि चमकेगी तो फिर पत्रकारिता को लेकर उंगली उठेगी ही।
आखिर यह गोदी मीडिया क्या है। अचानक रातों रात मीडिया को गोदी मीडिया क्यों कहा जाने लगा और इस आलोचना के बाद क्या मीडिया ने अपनी भूमिका बदली या सरकार की छवि बन पाई। दरअसल यह कहावत युगों से चला आ रहा है कि 'अति सर्वत्र वर्जतेंÓ। और मीडिया की सरकार की छवि बनाने की लगातार कोशिश की वजह से ही गोदी मीडिया का जन्म हुआ है। सरकार की गलतियों पर परदा डालने की कोशिश की वजह से ही गोदी मीडिया की चर्चा शुरु हुई है लेकिन जब मामला बढ़ता ही गया तो इस गोदी मीडिया की वह से मीडिया की छवि पर तो असर पड़ा ही है सरकार की इस कोशिश की भी आलोचना होने लगी है।
और अंत में...
प्रेस क्लब में आयोजित नंदन का अभिनंदन में शगुफ्ता शीरिन को छोड़ कई पदाधिकारी गायब रहे हालांकि इनके नहीं होने के बाद भी कार्यक्रम न केवल गरिमामय रहा बल्कि पत्रकारों ने देशभक्ति का गीत भी जोरदार गाया।

रविवार, 10 मार्च 2019

मीडिया की बदलती भूमिका...


वैसे तो हाल के सालों में सब कुछ बदल रहा है तब भला मीडिया की भूमिका क्यों न बदले? यह सवाल आम लोगों के जेहन में उठने लगा है तो इसकी वजह सत्ता का वह खेल है जिसमें फंसकर मीडिया के काम करने का तरीका है। इस तरीके ने पत्रकारों को अकेले खड़ा कर दिया है। या तो वे सत्ता के साथ खड़ा हो जाए या फिर अकेले हो जाए और देशद्रोही के परिधि में आ जाए क्योंकि सत्ता ने लोकतंत्र को ऐसे बना दी है कि जो सत्ता के साथ खड़ा है तब ही वह देशभक्त है।
यह सच है कि सत्ता के निशाने पर मीडिया हमेशा ही रही है और सत्ता में बैठे लोग यह कभी नहीं चाहते कि मीडिया ऐसी बातों को उजागर करे जो उनके लिए परेशानी का कारण बने।
हमने पहले ही लिखा है कि पत्रकारों के लिए स्वर्णिम काल कभी नहीं रहा सत्ता किसी की भी रही हो। उसने मीडिया पर दबान बनाने में कमी नहीं रखी। लेकिन हाल के सालों में जिस तरह से सत्ता के मायने बदले है और सत्ता ने बड़ी चतुराई से यह परोसा है कि सत्ता का मतलब ही देश प्रेम है तब मीडिया के लिए कोई और रास्ते का चुनाव कठिन होने लगा है।
पुलवामा की घटना के बाद जिस तरह से इलेक्ट्रानिक मीडिया की भूमि रही वह बालाकोट के बाद तो पाकिस्तान को नेस्तनाबूत तक जा पहुंची। अधिकांश मीडिया वहीं बात करने लगी जो सरकार को पसंद हो, यहां तक कि युद्ध का विरोध करने वालों को मीडिया ही देशद्रोही साबित करने में लग गई।
जबकि किसी भी स्थिति में युद्ध आखरी विकल्प है और यह होना भी चाहिए क्योंकि इससे नुकसान दोनों पक्षों का ही होता है। लेकिन हाल के सालों में जिस तरह से मीडिया के तौर तरीके बदले हैं वह हैरान कर देने वाला है। सत्ता के पीछे खड़े होने की वजह की जब हमने पड़ताल की तो पाया कि सत्ता ने जिस तरह न केवल विज्ञापनों के माध्यम से मीडिया को साधने का प्रयास किया है बल्कि देश प्रेम की आड़ में मीडिया पर दबाव भी बनाया है। देश प्रेम के खौलते तेल में पकौड़े तलकर देश को एक ऐसे दौर में पहुंचा दिया जहां सत्ता का साथ ही देशभक्ति है अन्यथा आप देशद्रोही साबित कर दिये जाओगे। इसलिए सरकार की पसंद पर हिन्दू, मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद गाय, गंगा पर आप जितना डिबेट करोगे सरकार उतना पैसा देगी। आप एक बार सरकार द्वारा मिल रहे विज्ञापन से पैसों की लालच में फंसे तो फंसते चले जाओगे।
एक अनुमान के मुताबिक इलेक्ट्रानिक मीडिया चलाने के लिए हर साल सौ-डेढ़ सौ करोड़ की जरूरत पड़ती है और यह राशि आखिर आये कहां से? यही वजह है कि पत्रकार वह हो गया है जो सत्ता के साथ नहीं तो वह देशद्रोही हो जायेगा। कोई कल्पना कर सकता है कि मोदी सरकार में भाजपा ने दो चैनलों का बहिष्कार सिर्फ इसलिए कर रखा है क्योंकि ये चैनल किसान, मजदूर, बेरोजगारी या फसल बीमा में हुए घोटाले के मुद्दे उठाते हैं और हिन्दू मुस्लिम पर डिबेट नहीं करते।
ऐसा नहीं है कि सत्ता का दबाव सिर्फ चैनलों पर है बल्कि अखबारों पर भी साफ देखा जा रहा है। विज्ञापन देने वाली कंपनियों पर तो दबाव डाला ही जाता है साथ ही ऐसे रिपोर्टरों को नौकरी से निकालने का भी फरमान सुनाते रहे हैं। पूण्यप्रसून बाजपेयी और अमिसार शर्मा का नाम तो कोई भूला नहीं है ये नाम इसलिए चर्चा में रहे क्योंकि ये चैनल में थे लेकिन करन थापर, बाबी घोष हिन्दुस्तान टाईम्स, हरीश खरे ट्रिब्यून और जय ठाकुर इकानॉमिक्स एण्ड पोलीटिकल विकली को कोई जानता है जिन्हें सरकार के दबाव में या तो नौकरी से हटा दिया गया या इस्तीफा देना पड़ा।
हम बता दे कि करण थापर ने स्वयं स्वीकार किया था कि मोदी सरकार के दबाव की वजह से वे इन दिनों नौकरी में नहीं जबकि बाबी घोष सत्ता के अपराध पर और हरीश खरे ट्रिब्यून में आधार कार्ड पर काम कर रहे थे। जय ठाकुर ने अडानी के खिलाफ खबर छापी थी।

सोमवार, 4 मार्च 2019

पत्रकारिता इन दिनों बेहद नाजुक दौर में


कोई माने या न माने, लेकिन यह सत्य है कि पत्रकारिता इन दिनों बेहद नाजुक दौर में है, आलोचना सहन नहीं करने की बढ़ती प्रवृत्ति का सर्वाधिक शिकार पत्रकार ही हुए है। स्वयं की सत्ता स्थापित करने और पैसों की भूख ने पत्रकारिता को ऐसे अंधेरे कमरे में कैद कर लिया है जहां से रोशनी की किरणें भी बेहद बारिक हो चली है। जहां से निकलना मुश्किल नजर आ रहा है।
हमने इसी जगह पर ट्रोल आर्मी के तेवर और इससे होने वाले खतरे को लेकर विस्तार दिया था लेकिन इस दौर में पत्रकारिता के लिए गंभीर चुनौती खड़ा हुआ है। झूठ की चादर इतनी उजली दिखाई देने लगा है कि सच को लेकर भ्रम होने लगा है।
प्रो सरकारी तंत्र से जिस तरह से मीडिया के सच को ट्रोल करना शुरु किया उससे भ्रम तो फैला ही मीडिया की विश्वसनियता को भी कटघरे में खड़ा करने का काम किया और यह सब इतने सलीके से किया गया कि वह आदमी भी मीडिया को गरियाने लगा जिसे अपने रोजी रोटी के अलावा किसी से मतलब नहीं है। मीडिया न हुआ गरीब की लुगाई हो गई जिसके साथ आप जब चाहे कुछ कर लो।
ऐसा नहीं है कि यह सब हाल के वर्षों में हुआ लेकिन चंद सालों में इसे धारदार तरीके से इस्तेमाल किया जाने लगा। दरअसल बगैर संवैधानिक अधिकार के मीडिया ने जिस तरह से राजनेताओं, अधिकारियों और अपराधियों के गठजोड़ पर प्रहार करना शुरु किया तब से ही इन तीनों के गठजोड़ ने अपनी ईज्जत बचाने मीडिया की विश्वसनीयता पर प्रहार शुरु किया।
नेताओं, अफसरों और माफियाओं के गठजोड़़ ने जिस तरह से देश में लूट खसोट की परिपाटी शुरु की उस पर मीडिया ने ही बाधा डाली कहा जाए तो गलत नहीं होगा। मीडिया के बढ़ते प्रभाव से लुट खसोट में बाधाओं को बर्दाश्त करना इन गठजोड़ के लिए कठिन काम था इसलिए साजिशन मीडिया की विश्वसनियता पर न केवल सवाल उठाये गये बल्कि पत्रकारों की हत्या तक की जाने लगी है। 
अपनी छवि चमकाये रखने मीडिया की छवि को बिगाडऩे के लिए जिस तरह का षडय़ंत्र किया गया वह शोध का विषय है। ऐसे गठजोड़ ने सत्ता के दम पर सबसे पहले ऐसे मीडिया घराने को अपने जाल में फंसाया जो पैसों के दिवाने थे। उन्हें भय और प्रलोभन से ऐसी खबरों के लिए मजबूर किया गयाजो उनके हितों की रक्षा तो करे ही उनकी छवि को भी चमकाने का काम करे। इसके बाद आपराधिक कमाई से मिले धन से स्वयं का मीडिया हाउस खड़ा करने की कोशिश में ऐसे पत्रकारों को अपने जाल में फंसाया जिसके नाम का इस्तेमाल शार्पशूटर की तरह कर ले।
इन सबके बाद भी जब मीडिया को जब वे प्रभावित नहीं कर पाये तब फेंक न्यूज और ट्रोल आर्मी का इस्तेमाल करना शुरु कर दिया। हालात को इस तरह से वे संचालित करने लगे कि आम आदमी की जरुरतों को नजरअंदाज किया जा सके और आम आदमी अपनी जरुरतों की बजाय उन मुद्दों में भटक जाए जिससे उनका ध्यान सरकार की तरफ से हट जाए और वे जाति, धर्म और देशभक्ति में उलझ कर रह जाए।
जन सरोकार के मुद्दे उठाने वालों को इतना ट्रोल किया जाए कि उसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा कर दिया जाए। उसे धर्म विरोधी, देश विरोधी साबित कर दिया जाए। राजनीति, अपराधियों और अफसरों के इन गठजोड़़ की वजह से पत्रकारिता के इस नाजुक दौर में जिस तरह से खबरों की विश्वसनीयता संकट में है वह देश के हित में कतई नहीं है। मीडिया हाउस तो पहले ही बंटे थे और अब पत्रकार भी बंटे नजर आने लगे है।
और अत में...
पिछले दिनों मोटर साइकिल की दुनिया में जावा ने जब कदम रखा तो उसने पत्रकार वार्ता का आयोजन किया। पत्रकार वार्ता में भीड़ बढ़ गई और इस भीड़ से आयोजकों में उत्साह भी था तो बेचैनी भी। क्योंकि पत्रकारों को ऐसे अवसर पर दिया जाने वाले उपहार कम पड़ गये। कुछ ने इस तरह के आयोजन में चेहरा और बैनर देख उपहार बांटने पर नाराजगी भी दिखाई। पर यह नाराजगी केवल आयोजन स्थल तक सिमट कर रह गया। वहां की अव्यवस्था पर किसी भी अखबार ने कुछ नहीं लिखा।

रविवार, 24 फ़रवरी 2019

ट्रोल आर्मी के निशाने पर पत्रकारिता



वैसे तो पत्रकारिता का स्वर्णीम काल कभी नहीं रहा। आलोचना हर किसी को बर्दाश्त नहीं होता वो तो मजबूरी है वरना वे आलोचना करने वालों को सरेआम पीट दे या मार तक डालें।
इन दिनों पत्रकारिता पर नये तरह के खतरे पैदा होने लगा है। नेता या अधिकारी आलोचना करने वाले पत्रकारों को सीधे पीटवाने की बजाय उन्हें देशद्रोही साबित कर भीड़ के हाथों पिटवा देने का षडय़ंत्र रचने लगे हैं।
एनडी टीवी के पत्रकार रविश कुमार की माने तो दो हजार चौदह में कोई अवतारी पुरुष आया जिसकी आलोचना नहीं हो सकती जिससे सवाल नहीं किये जा सकते और ऐसा करने वालों को देशद्रोही बता दो ताकि भीड़ उन्हें मार तक डाले।
पिछले दिनों भाजपा कार्यालय में एक पत्रकार के साथ पिटाई हुई और इस मारपीट में भाजपा के नेता फंस गये। लेकिन अब वे लोग ज्यादा सचेत हैं इसलिए वे अब खबरों पर ट्रोल करने लगे। पिछले दिनों भास्कर में छपी एक कार्टून को ट्रोल किया गया। और उस कार्टून को देश विरोधी बताते हुए अखबार को पढऩा बंद कर देने की अपील की गई। प्रवीण मैसेरी नामक इस भाजपा नेता के ट्रोल पर अन्य भाजपा नेताओं की प्रतिक्रिया होने लगी और यह पूरा ट्रोल आर्मी के शक्ल में तब्दिल हो गया। इनमें से कितने लोगों ने भास्कर की प्रति अपने घर में बंद की यह तो पता नहीं लेकिन कल तक भास्कर को अपना अखबार बताने वाले भाजपा नेता का इस अखबार को रातों रात देशद्रोही बता देना हैरानी भरा है।
अवतारी पुरुष का यह ट्रोल आर्मी किस तरह से पत्रकारिता पर हमला कर रहा है वह आने वाले दिनों में पत्रकारिता के लिए नये खतरे पैदा कर रहा है। भीड़ के हाथों कब कौन पत्रकार के पीटे जाने की खबरें आ जाए कहा नहीं जा सकता है।
स्वागत है दाऊजी
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने सांईस कालेज में जब यह घोषणा की कि उनकी सरकार किसी का फोन टेपिंग नहीं करायेगी तो यह पत्रकारों के लिए खुशी का मौका था।
क्योंकि पिछली सरकार यानी रमन सिंह की सरकार ने जिस तरह से अपने विरोधियों का फोन टेप कराये थे उसकी वजह से कई पत्रकारों के लिए फोन पर बात करना असहज हो गया था। एक डर बना रहता था कि सरकार पता नहीं किस मामले में जन सुरक्षा कानून लगाकर जेल में डाल दें। कई नामचीन पत्रकारों के फोन ही नहीं टेप किये जा रहे थे बल्कि वे किससे मिलते जुलते हैं उन्हें खबर कहां से मिलती है इसका भी हिसाब किताब सरकार रख रही थी। एक अज्ञात भय में जीने को मजबूर थे ऐसे में जब मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने फोन टेप नहीं कराने की घोषणा की तो इसका चौतरफा स्वागत हुआ है। अपने राजनैतिक फायदे के लिए जिस तरह से रमन सरकार ने फोन टेप कराया वह किसी भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए खतरनाक है और ऐसी कार्रवाई शर्मनाक कही जानी चाहिए।
मीटिंग की ऐसी की तैसी
राजधानी से प्रकाशित हो रहे कई नामचीन अखबारों में मीटिंग की प्रक्रिया से कई पत्रकार दुखी है खासकर सिटी रिपोर्टरों और फोटोग्राफरों का गुस्सा आये दिन सार्वजनिक होने लगता है। दरअसल इस तरह की मीटिंग से समय श्रम व धन की बर्बादी के रुप में देखा जा रहा है तो कुछ गलत भी नहीं है। सब काम धाम छोड़कर 11-12 बजे कार्यालय में बुलाई जाने वाली इस तरह मीटिंग में ज्यादा कुछ होता तो है नहीं उल्टे परेशानी जरुर होती है। जबकि आज हाई टेक्नोलाजी का जमाना है और इस तरह मीटिंग में टेक्नालाजी का इस्तेमाल करना भी चाहिए ताकि पत्रकारों को इस पीड़ा से निजाद मिल सके।
और अंत में...
पन्द्रह साल तक सत्ता की मलाई खाने वाले कुछ पत्रकारों में भाजपा के प्रति वफादारी का यह आलम है कि वे एक तरफ भूपेश बघेल की तारीफ के कसीदे गढ़ रहे है और भाजपा कार्यालय में केन्द्र सरकार की वापसी का दावा करते हैं।

रविवार, 17 फ़रवरी 2019

वैचारिक पत्रकारिता और दलाली


वैचारिक पत्रकारिता और दलाली
यह सच है कि वैचारिक पत्रकारिता करना बहुत कठिन है। किसी एक विचारधारा के समर्थन में खड़ा होना वह भी सीना ठोंक के आसान नहीं है। वह भी तब जब आप सत्ता के बाहर हो। छत्तीसगढ़ में वैचारिक पत्रकारिता की शुरुआत कब से हुई यह कहना कठिन है लेकिन इसकी शुरुआत युगधर्म से होने की बात कही जाती है। अपना पक्ष रखने दक्षिणपंथियों ने अखबार निकाला और फिर एक विचारधारा को लेकर संघर्ष करते रहे लेकिन यह स्वीकार्य तब भी नहीं था और न ही दैनिक स्वदेश के खुलने के बाद ही स्वीकार्य हो पाया। परिणाम स्वरुप इस एक विचारधारा के साथ खड़ा रहना मुश्किल कार्य रहा इस तरह की पत्रकारिता से न केवल अखबार को खड़ा रखना मुश्किल है बल्कि एक विचारधारा को लेकर चलने वाले पत्रकारों की विश्वसनीयता पर भी सवाल खड़े होते रहे हैं। यही वजह है कि सत्ता के दौरान फलने-फूलने वाले ऐसे पत्रकार सत्ता जाते ही गड़बड़ा जाते है।
ताजा उदाहरण छत्तीसगढ़ में सत्ता परिवर्तन के बाद देखा जा सकता है। भाजपा की सत्ता जाते ही कल तक स्वयं को भाजपाई विचारधारा का समर्थक बताने वाले ऐसे अधिकांश पत्रकारों में स्वयं को भाजपा विरोधी साबित करने की होड़ सी मच गई है। कुछ तो पत्रकारिता छोड़ दूसरा काम धाम में रुचि ले रहे हैं तो कुछ कांग्रेसियों के सामने स्वयं को कांग्रेसी साबित करने में लग गए हैं। इनमें वे पत्रकार भी शामिल है जिन्होंने पत्रकारिता की शुरुआत गद्रे भवन (पुराने भाजपा कार्यालय) में पनाह लेते थे या रात गुजारते थे। एक पत्रकार तो मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से अपनी नजदीकी का हवाला देते नहीं थकते और कोई भी काम करा लेने का दावा करते घूम रहा है। हालांकि यह पहले भी रमन राज में पत्रकारिता से Óयादा कमीशनखोरी का काम भी करा रहा है।
इसी तरह का एक पत्रकार जो चुनाव से पहले किसी भी सूरत में कांग्रेस की सत्ता नहीं आने का दावा करता था वह चुनाव परिणाम आते ही मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को अपने कालेज के जमाने का साथी बताता घूम रहा है।
इसी तरह 5 हजार की तनख्वाह से रायपुर में पत्रकारिता शुरु करने वाले का ठाठ इन दिनों चर्चा में है।
भाजपा की बौखलाहट...
चुनाव में बुरी तरह बौखलाई भाजपा को अब पत्रकार कांग्रेसी नजर आने लगे। पिछले दिनों भाजपा प्रभारी अनिल जैन को एक पत्रकार का सवाल इतना नागवार गुजरा कि वे प्रेस कांफ्रेंस के दौरान ही एक पत्रकार को कांग्रेसी बता गये जबकि एक अन्य घटनाक्रम में भाजपा कार्यालय में एक पत्रकार की न केवल पिटाई की गई बल्कि एक महिला पत्रकार को अभद्रतापूर्वक कक्ष से बाहर निकाला गया। इस पत्रकार की सिर्फ इतनी गलती थी कि हार की समीक्षा के दौरान हंगामा कर रहे कार्यकर्ताओं की वीडियो बनाने वह बैठ गया था।
भाजपा नेताओं के शह पर हुई इस गुण्डागर्दी के खिलाफ प्रदेशभर के पत्रकार आंदोलन पर है लेकिन भाजपा नेतृत्व को इससे कोई लेना देना नहीं है। जबकि प्रेस क्लब रायपुर ने अनिश्चितकालीन धरना दे दिया है।
फर्जी के चक्कर में असली भी गये...
रमन राज में पत्रकारिता की आड़ में कई भाजपाई धंधा करने लग गये थे और फर्जी न्यूज एजेंसी बनाकर सरकार से लाखों रुपये महिना वसूल भी रहे थे। ऐसा नहीं है कि रमन राज के इस करतूत की जानकारी किसी को नहीं थी लेकिन सत्ता बदलते ही मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को जैसे ही इस करतूत की जानकारी मिली उन्होंने तुरन्त ऐसे 17 एजेंसियों का दाना पानी बंद कर दिया। कहा जाता है कि इन एजेंसियों की आड़ में कई भाजपाई लाल हो गये थे।
और अंत में...
जब से सत्ता बदली है जनसंपर्क विभाग में भी अमूल चूल परिवर्तन दिखने लगा है। एक अधिकारी के लम्बी छुट्टी पर चले जाने को लेकर चर्चा गर्म है।

गुरुवार, 12 मई 2016

स्वास्थ्य मंत्री की मीडिया को सलाह...


स्वास्थ्य मंत्री की मीडिया को सलाह...
यह तो उल्टा चोर कोतवाल को डांटे की कहावत को ही चरितार्थ करता है वरना प्रदेश के स्वास्थ मंत्री अजय चंद्राकर मीडिया को सलाह देने की बजाय स्वयं के आचरण और करतूत को सुधारने में ध्यान लगाते।
दरअसल स्वास्थ्य मंत्री अजय चंद्राकर इन दिनों अपनी करतूतों को लेकर मीडिया की सुर्खियों में हैं। प्रदेश सरकार के महत्वकांक्षी योजना ग्राम सुराज में हिस्सा ले रहे अजय चंद्राकर के रवैये को लेकर जिस तरह से बातें सामने आ रही है वह हैरान कर देने वाली है।धमकी-चमकी गाली गलौज के लिए पहले ही चर्चित अजय चंद्राकर के ग्राम सुराज में बोल इन दिनों चर्चा में है और अपने आचरण को ठीक करने की बजाय वे मीडिया को सलाह दे रहे हैं कि वे उन्हें निशाना बनाने की बजाय ग्राम सुराज जैसे अच्छे कार्य पर लिखे।
दरअसल पिछले दशक भर से चल रहे ग्राम सुराज को लेकर सरकार की पहले ही किरकिरी हो रही है ऐसे में अजय चंद्राकर के आचरण की चर्चा स्वाभाविक है। ऐसा नहीं है कि अधिकारियों की करतूतों की वजह से अजय चंद्राकर का गुस्सा फुट रहा है असल में अजय चंद्राकर अपनी इस तरह की हरकतों को लेकर पहले ही चर्चा में रहे हैं। महिलाओं से दुव्र्यवहार के अलावा दूसरे कई मामले पहले भी उठते रहे हैं। जानकारों का तो यहां तक दावा है कि अपनी इसी हरकत की वजह से ही वे पिछली बार चुनाव में पराजित हुए थे।
वैसे मीडिया को लेकर जिस तरह की सोच बनते जा रही है उसे लेकर मीडिया को भी सचेत रहने की जरूरत है। बस्तर के पत्रकारों पर जिस तरह से नक्सली और पुलिस का दबाव है लगभग खबरें न छापने को लेकर राजधानी के पत्रकारों पर मैनेजमेंट का दबाव कम नहीं है। किस मंत्री से किस अखबार मालिक का संबंधहै किसी से छिपा नहीं है। राजधानी में विज्ञापनों का दबाव के चलते खबरों का रुकना आम बात होने लगी है और इस वजह से सोशल मीडिया में भी प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया का न केवल मजाक उड़ाया जाने लगा है बल्कि मीडिया की छवि को नुकसान पहुंचा है।
हालांकि यह बात बहुत कम लोग जानते है कि यह सारा खेल अखबार मालिक और सरकार के बीच का खेल है जिसमें पत्रकारों का कोई खास लेना देना नहीं होता। परन्तु जिस तरह से मीडिया को गरियाने या समझाने की परम्परा शुरु हुई है इसका क्या असर होगा यह भविष्य के गर्भ में है।
और अंत में...
मीडिया से खासे नाराज रहने वाले सत्ता पक्ष के एक नेता का कहना है कि दरअसल राजधानी के मीडिया घरानों का कांग्रेसियों से संबंध प्रगाढञ रहे हैं और वे यदि पावर में आये तो कईयों की दुकानदारी बंद करा देंगे और इस अभियान के तहत वे इन दिनों विकास प्राधिकरण में कमीशनखोरी का धन जमा करने में मशगूल है।

मंगलवार, 15 मार्च 2016

लिखने की दो... आजादी!


जेएनयू में कन्हैया कुमार जब लाल सलाम का मतलब समझा रहा था तब दिल्ली से दूर बैठे छत्तीसगढ़ में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि यहां सिर्फ लाल सलाम कहने वाले जेल में क्यों और कैसे ठूंस दिये जाते है। दिल्ली में लाल सलाम पर कानून का नजरिया अलग और छत्तीसगढ़ में अलग क्यों है। क्या इस देश में दो तरह के कानून है।
सवाल तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इस वक्तव्य को लेकर भी उठ रहे है कि कल तक भारत में पैदा होने में शर्म महसूस होता था। कोई और ऐसा कह दे तो चड्डी वाले उसका जुलूस ही नहीं निकालते पुलिस भी मार कूट कर उसे सलाखों के पीछे डाल देती।
सवाल अभिव्यक्ति की आजादी और उसके खतरे का बना हुआ है। सरकार किसी की भी हो अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरे सामान रुप से बना हुआ है। पत्रकारिता से इन बातों का सीधा संबंध हम देखते हैं कि कैसे दिल्ली से दूर गांव तक आते-आते पत्रकारिता पर दबाव बढ़ता जाता है।
राजधानी में यह खतरे दूसरी तरह का है। यहां पत्रकारों को कोई सीधा पकड़कर जेल में नहीं डालता परन्तु उसकी नौकरी छुड़ा दी जाती है। इस खेल में पुलिस का नहीं जनसंपर्क विभाग का सहारा लिया जाता है। ऐसे कितने ही उदाहरण है जब सिर्फ एक खबर पर कितनों की नौकरी चली गई कितनों के तबादले कर दिये गये। एक अखबार सारा संसार की बात हो या पत्र नहीं मित्र की बात हो राजस्थान से आये धुरंधर की बात हो या मंझोले कद की बात हो। खबरों की सच्चाई पर कम जनसंपर्क के दबाव में लिखने की आजादी पर बंदिशें लगाई गई।
कन्हैया के लाल सलाम का जिक्र यहां इसलिए किया जा रहा है कि बस्तर में पत्रकारिता तलवार की धार पर चलने जैसी है। नक्सली की आड़ में भ्रष्टाचार खूब फल फूल रहा है। सड़क-भवन के नाम पर आने वाले करोड़ों रुपये भ्रष्टाचार की भेट चढ़ रहा है। नक्सलियों का डर बताकर सरकारी सेवक कार्यालयों से गायब हो जाते हैं। महिनों स्कूल नहीं लगता पर वेतन बराबर बंटता है। राजीव गांधी शिक्षा मिशन का बुरा हाल है। पीडब्ल्यूडी के भवन व सड़क निर्माण का कोई हिसाब नहीं है। मनरेगा से लेकर दूसरी सरकारी योजनाएं दम तोड़ रही है और इस पर लिखने वालों को सीधे धमकी ही नहीं दी जाती जेल तक में ठूंस दिया जाता है। आरोप भी नक्सलियों से सांठ-गांठ का होता है। 
दिल्ली में जिस मस्ती से कन्हैया ने लाल सलाम कह दिया वैसा बस्तर में कोई कह नहीं सकता। जन सुरक्षा कानून मजबूती से पैर जमाये हुए है। बीबीसी के पत्रकार आलोक पुतुल को भेजे जाने वाले मैसेज क्या यह चुगली करने के लिए काफी   नहीं है कि यहां सब कुछ ठीक नहीं है। परन्तु सरकार को यह सब नहीं दिखता। पर्याप्त सबूत के बाद भी सरकार की खामोशी क्या यह साबित नहीं करते कि बस्तर में पत्रकारों के साथ जो कुछ हो रहा है वह सब सरकार के इशारे पर हो रहा है?
यह सच है कि इन दिनों देश भर में पत्रकारों को गरियाने का दौर चल रहा है। परन्तु इसके लिए जिम्मेदार क्या सरकार-प्रशासन और वे मीडिया हाउस नहीं है जो दबाव में है। जो अपने हितों के लिए पत्रकारों को शार्प शूटर की तरह इस्तेमाल करते हैं और जब उन्हें खबरों पर स्वयं के हित में खतरे दिखते हैं पीछे हट जाते हैं।
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